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२८६ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय तत्त्वार्थसूत्र को सूत्रपाठ से सम्बन्ध रखने वाली निम्न टिप्पणी (पृ० १३२)से भी पाया जाता है :___"सिद्धसेन को सूत्र और भाष्य की असंगति मालूम हुई है और उन्होंने इसको दूर करने की कोशिश भी की है।" __ परन्तु जान पड़ता है पं० सुखलालजी को सिद्धसेन का वह प्रयत्न उचित नहीं झुंचा, और इसलिये उन्होंने मूलसूत्र में उस सुधार को इष्ट किया है जो उसे भाष्य के अनुरूप रूप देकर 'अव्रतकषायेन्द्रियक्रियाः' पद से प्रारम्भ होने वाला बनाता है। इस तरह यद्यपि सूत्र और भाष्य की उक्त असंगति को कहीं-कहीं पर सुधारा गया है, परन्तु सुधार का यह कार्य बाद की कृति होने से यह नहीं कहा जा सकता कि सूत्र और भाष्य में उक्त असंगति नहीं थी।
यहाँ पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि श्वेताम्बरीय आगमादि पुरातन ग्रन्थों में भी साम्परायिक आस्रव के भेदों का निर्देश इन्द्रिय, कषाय, अव्रत योग और क्रिया इस सत्र निर्दिष्ट क्रम से पाया जाता है। जैसा कि उपाध्याय मुनि श्री आत्मारामजी द्वारा 'तत्त्वार्थसूत्र
जैनागमसमन्वय' में उद्धृत स्थानांगसूत्र और नवतत्त्वप्रकरण के निम्न .वाक्यों से प्रकट है :
"पंचिदिया पण्णत्ता""चत्तारिकसाया पण्णत्ता""पंचअविरय पण्णत्ता" पंचवीसा किरिया पण्णत्ता"।"
-स्थानांग स्थान २, उद्देश्य १ सू० ६० (?) "इंदियकसायअव्वयजोगा पंच चउ पंच तिन्नि कमा।" किरियाओ पणवीसं इमाओ ताओ अणुकमसो ॥"
-नवतत्त्वप्रकरण इससे उक्त सुधार वैसे भी समुचित प्रतीत नहीं होता, वह आगम के [विरुद्ध पढ़ेगा और इस तरह एक असंगति से बचने के लिये दूसरी असंगति को आमन्त्रित करना होगा।"१
यह सत्य है कि 'इन्द्रियकषायाऽवत क्रिया' की विवेचना में भाष्य में क्रम-भेद है । जहाँ सूत्र में इन्द्रिय प्रथम और अव्रत तृतीय स्थान पर है,
१. जैन साहित्य और इतिहास पर विशद् प्रकाश, पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार
पृ० १२७-२८।
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