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२७८ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
उसके बहुत काल बाद रचा गया है और इन दोनों का आधार लेकर प्रशमरतिप्रकरणकार ने अपनी रचना प्रशमरति लिखी है।"१ ___इस सम्बन्ध में सर्वप्रथम तो मेरा निवेदन यह है कि प्रशमरति के कर्ता के समक्ष तत्त्वार्थसूत्र और भाष्य की उपस्थिति से यह सिद्ध नहीं होता है कि वे भिन्न कृतक हैं अथवा उनके बीच कालक्रम का लम्बा अन्तराल है। जब ये तीनों ग्रन्थ एक ही लेखक की रचना है और उसमें भी प्रशमरति उनकी बाद की रचना हो तो प्रशमरति में तत्त्वार्थ और उसके भाष्य की उपस्थिति स्वाभाविक हो है ।
पुनः तीनों ग्रन्थों में श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आगमों का अनुसरण देखा जाता है, जो यही सिद्ध करता है कि वे तीनों एक ही आगमिक परम्परा के व्यक्ति की रचनाएँ है । अतः तत्त्वार्थ के कर्ता को दिगम्बर या यापनीय मानना और भाष्य और प्रशमरति के कर्ता को श्वेताम्बर कहना उचित नहीं है। भाष्य और प्रशमरति में जो तथ्य हैं वे उनके कर्ता को श्वेताम्बर और यापनीय परम्परा का पूर्वज ही सिद्ध करते हैं। तत्त्वार्थ, तत्त्वार्थभाष्य और प्रशमरति में यदि किञ्चित मान्यता भेद भी हो तो उससे मात्र यही फलित होता है कि उमास्वाति की जीवन के उत्तरार्ध में कुछ मान्यताएँ बदली है। यद्यपि उनमें ऐसा मान्यता भेद नहीं देखा जाता है।
तत्त्वार्थ और उसके भाष्य तथा प्रशमरति में यदि काल का लम्बा अन्तराल होता तो उनमें कहीं न कहीं किसी रूप में गुणस्थान और सप्तभंगी जैसे विकसित जैन सिद्धान्तों का प्रवेश हो जाता। गुणस्थान जैन साधना और जैन कर्म सिद्धान्त का आधारभूत सिद्धान्त है, जो पाँचवों शती के लगभग अस्तित्व में आया। तत्त्वार्थसूत्र, तत्त्वार्थभाष्य और. प्रशमरति में उनकी अनुपस्थिति से यही सिद्ध होता है कि वे समकालीन रचनाएँ हैं और उनके कालों में २०-३० वर्ष से अधिक का अन्तर नहीं रहा है। यदि दिगम्बर विद्वानों के अनुसार ये सातवीं-आठवीं शती की रचनाएँ होती तो इनमें सप्तभंगी और गुणस्थान सिद्धान्त अवश्य आ जाते । क्योंकि पाँचवीं-छटीं शती के बाद की सभी श्वेताम्बर-दिगम्बर तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं में इनका उल्लेख है । क्या तत्त्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थभाष्य भी भिन्न कृतक हैं ?
दिगम्बर परम्परा के मूर्धन्य विद्वान् पं० फूलचन्द जी, पं० जुगल
१. यापनीय और उनका साहित्य, पृ० १२० ।
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