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२३० : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
साम्प्रदायिक मान्यताओं की अनुपस्थिति से हम उनके श्वेताम्बर या दिगम्बर होने के सम्बन्ध में कोई भी निष्कर्ष नहीं निकाल सकते हैं। क्योंकि यह एक निषेधात्मक तर्क होगा और इसका उपयोग दोनों ही पक्ष. अपने मन्तव्य की सिद्धि के लिए कर सकते हैं। सिद्धसेन के सम्प्रदाय का निर्धारण करने में उनका समय एक महत्त्वपूर्ण साधन हो सकता है अतः अब हम उस पर विचार करेंगे। सिद्धसेन के काल के आधार पर उनके सम्प्रदाय का निर्धारण :
सिद्धसेन की परम्परा का निर्धारण करने में उनका काल एक महत्त्वपूर्ण आधार हो सकता है। उनके काल के सम्बन्ध में पं० सुखलाल जी ने विस्तृत चर्चा की है, हम तो यहाँ केवल संक्षिप्त चर्चा करेंगे । प्रभावकचरित में सिद्धसेन की गुरु परम्परा की विस्तृत चर्चा हुई है। उसके अनुसार सिद्धसेन आर्य स्कन्दिल के प्रशिष्य और वृद्धवादी के शिष्य थे। आर्य स्कन्दिल को माथुरी वाचना का प्रणेता माना जाता है । यह वाचना वीर निर्वाण ८४० में हुई थी। इस दृष्टि से आर्य स्कन्दिल का समय विक्रम की चतुर्थ शताब्दी के उत्तरार्ध के लगभग आता है। कभी-कभी प्रशिष्य अपने प्रगुरु के समकालिक भी होता है, इस दृष्टि से सिद्धसेन दिवाकर का काल भी विक्रम की चौथी शताब्दी का उत्तरार्घ माना जा सकता है। प्रबंधों में सिद्धसेन को विक्रमादित्य का समकालीन माना गया है। इन कथानकों के आधार पर यह सिद्ध होता है या चन्द्रगुप्त द्वितीय को विक्रमादित्य मानने पर भी सिद्धसेन चतुर्थ शती के हैं। यह माना जाता है कि उनकी सभा में कालीदास, क्षपणक आदि नौ रत्न थे। यदि क्षपणक सिद्धसेन ही थे तो इस दृष्टि से भी सिद्धसेन का काल विक्रम की चतुर्थ शताब्दी का उत्तरार्ध माना जा सकता हैं, क्योंकि चन्द्रगुप्त द्वितीय का काल भी विक्रम की चतुर्थ शताब्दी का उत्तरार्ध सिद्ध होता है । पुनः मल्लवादी ने सिद्धसेन दिवाकर के सन्मति तर्क पर टीका लिखी थी, ऐसा निर्देश आचार्य हरिभद्र ने किया है। प्रबन्धों में मल्लवादो का काल वीर निर्वाण संवत् ८८४ के आसपास माना जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि विक्रम की पांचवीं शताब्दी के पूर्वाधं में सन्मतिसूत्र पर टीका लिखी जा चुकी थी। अतः सिद्धसेन विक्रम की चौथी शताब्दी के उत्तरार्ध में हए होंगे। पुनः विक्रम की छठी शताब्दी में पूज्यपाद देवनन्दी ने जैनेन्द्र व्याकरण में सिद्धसेन के १. देखें-सन्मति प्रकरण-सम्पादक, पं० सुखलाल जी संधवी, ज्ञानोदय ट्रस्ट
अहमदाबाद, प्रस्तावना पृ० ६ से १६ ।
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