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सिद्धान्त विद्याधर और उनके सम्यतिसूत्र की परम्परा : २३३ (२) आदरणीय उपाध्ये जी का दूसरा तर्क यह है कि सन्मति सूत्र का श्वेताम्बर आगमों से कुछ बातों में विरोध है। उपाध्ये जी के इस कथन में इतनी सत्यता अवश्य है कि सन्मतिसूत्र को अभेदवादी मान्यता का श्वेताम्बर आगामों से विरोध है। मेरी दृष्टि से यही एक ऐसा कारण रहा है कि श्वेताम्बर आचार्यों ने अपने प्रबन्धों में उनके सन्मति तर्क का उल्लेख नहीं किया है। लेकिन मात्र इससे ने न तो आगम विरोधी सिद्ध होते हैं और न यापनोय ही। सर्वप्रथम तो श्वेताम्बर आचार्यों ने उन्हे अपनी परम्परा का मानते हुए ही उनके इस विरोध का निर्देश किया है कभी उन्हें भिन्न परम्परा का नहीं कहा है। दूसरे यदि हम सन्मतिसूत्र को देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि वे आगमों के आधार पर ही अपने मत की पुष्टि करते थे। उन्होंने आगम मान्यता के अन्तविरोध को स्पष्ट करते हुए यह सिद्ध किया है कि अभेदवाद भी आगमिक धारणा के अनुकूल है। वे स्पष्टरूप से कहते हैं कि आगम के अनुसार केवलज्ञान सादि और अनन्त है, तो फिर क्रमवाद सम्भव नहीं होता है क्योंकि केवलज्ञानोपयोग समाप्त होने पर ही केवल दर्शनोपयोग हो सकता है। वे लिखते हैं कि सूत्र की आशातना से डरने वाले को इस आगम वचन पर भी विचार करना चाहिए। वस्तुतः अभेदवाद के माध्यम से वे, उन्हें आगन में जो अन्तविरोध परिलक्षित हो रहा था, उसका ही समाधान कर रहे थे। वे आगमों की ताकिक असंगतियों को दूर करना चाहते थे और उनका यह अभेदवाद भी उसी आगमिक मान्यता को तार्किक निष्पत्ति है, जिसके अनुसार केवलज्ञान सादि किन्तु अनन्त है। वे यही सिद्ध करते हैं कि क्रमवाद भी आगमिक मान्यता के विरोध में है।
(३) प्रो० उपाध्ये जी का यह कथन सत्य है कि सिद्धसेन दिवाकर का केवली के ज्ञान और दर्शन के अभेदवाद का सिद्धान्त दिगम्बर परम्परा के युगपद्वाद के अधिक समीप है। हमें यह मानने में भी कोई आपत्ति नहीं है कि सिद्धसेन के अभेदवाद का जन्म क्रमवाद और युगपद्वाद के अन्तविरोध को दूर करने हेतु हो हआ है किन्तु यदि सिद्धसेन दिवाकर दिगम्बर या यापनोय होते तो उन्हें सीधे रूप से युगपद्वाद के सिद्धान्त १. सुत्तासायणभीरूहि तं च दट्ठव्वयं होई ।
संतम्मि केवले दसणम्मि णाणस्स संभवो णस्थि ।। सुतम्मि चेव साई-अपज्जवसियं ति केवलं वृत्तं । केवलणाणम्मि य दंसगस्स तम्हा सणिणाई ॥
-सन्मति-प्रकरण, २/७-८
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