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२६४ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
में काल स्वतन्त्र द्रव्य है या नहीं, इस सम्बन्ध में दोनों प्रकार के दृष्टिकोणों के उल्लेख उपलब्ध होते हैं। इस सत्र के आधार पर यह सिद्ध होता है कि यह उस परम्परा का ग्रन्थ है जिसमें काल के द्रव्यत्व के सम्बन्ध में वैकल्पिक मान्यताएँ थीं।
४. तत्त्वार्थ के भाष्यमान्य और सर्वार्थसिद्धिमान्य दोनों पाठों में उपस्थित 'एकादशजिने' (९।११) सूत्र स्पष्ट रूप से दिगम्बर परम्परा के विरुद्ध जाता है, क्योंकि वे 'जिन' में कवलहार नहीं मानने के कारण क्षुधापरिषह आदि परिषहों को स्वीकार नहीं करते, किन्तु सूत्र में स्पष्ट रूप से 'जिन' को भी ग्यारह परिषह बताये गये हैं। यह बात भी उसे श्वेताम्बर परम्परा का सिद्ध करती है, क्योंकि श्वेताम्बर एवं यापनीय केवलो के कवलाहार को स्वोकार करके उसमें क्षुधादि परिषहों का सद्भाव मानते हैं।
५. श्वेताम्बर विद्वान् तत्त्वार्थभाष्य और प्रशमरति को उमास्वाति की ही कृति मानकर उन्हें श्वेताम्बर परम्परा का सिद्ध करते हैं। क्योंकि तत्त्वार्थभाष्य (९।५, ९।७, ९।२६) और प्रशमरति में वस्त्र-पात्र सम्बन्धी कुछ ऐसे सन्दर्भ हैं, जो उनके श्वेताम्बर परंपरा से सम्बद्ध होने के प्रमाण हैं।
यदि हम भाष्य और प्रशमरति को तत्वार्थसूत्र के कर्ता उमास्वाति की कृति मानते हैं तो हमें यह भी मानना होगा कि तत्त्वार्थ सूत्र मूलतः वस्त्र-पात्र समर्थक श्वेताम्बर परंपरा का ग्रन्थ है ।
पं० सुखलाल जी के अनुसार तत्त्वार्थसूत्र, उसका भाष्य तथा प्रशमरति (१३८) एक हो कृतक हैं-इस सम्बन्ध में वे लिखते हैं
(i) भाष्य पर उपलब्ध टीकाओं में सबसे प्राचीन टीका सिद्धसेन की है । उसमें भाष्य की स्वोपज्ञता के सूचक अनेक उल्लेख मिलते हैं। (इस हेतु देखें-तत्त्वार्थधिगमसूत्र-सभाष्यटीका प्रथम भाग पृ० ७२, २०५, द्वितीय भाग पृ० २२०, सम्पादक-हीरालाल कापडिया)।
(ii) याकिनी सुनु हरिभद्र (ईसा की आठवीं शती) ने भी शास्त्रवार्तासमुच्चय में भाष्य की अन्तिम कारिकाओं में से आठवीं कारिका को उमास्वाति कृतक रूप में उद्धृत किया है।
(iii) आचार्यदेवगुप्त भी सूत्र और भाष्य को एक ही कृतक मानते हैं।
(iv) भाष्य की प्रारम्भिक कारिकाओं (१।२२) में और कुछ अन्य स्थलों पर भाष्य में वक्ष्यामि, वक्ष्यामः (५।२२, ५।३७, ५।४०, ५४२) आदि प्रथम पुरुष के निर्देश हैं और इन निर्देशों के बाद ही सूत्र का कथन किया
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