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तत्वार्थ सूत्र और उसकी परम्परा : २७१
मेरी दृष्टि में यह निष्कर्ष युक्तिपूर्ण नहीं है, प्रथम तो यह कि यह सैद्धांतिक वैषम्य न होकर मात्र संक्षिप्त और विस्तृत विवेचन का परिणाम है । तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य के समान प्रशमरति भी मूल में तो पाँच ही भाव की चर्चा करती है किन्तु जब वह उनमें से प्रत्येक के उपभेदों एवं उनके सन्निपातजन्य उपभेदों की चर्चा करती है तो वह कहती है कि छठें सान्निपातिक भाव के अन्य पन्द्रह भेद भी हैं । किन्तु यह स्मरण रखना होगा कि सान्निपातिक भाव स्वतंत्र भाव न होकर, एक मिश्रित भाव दशा है, अतः उसका तत्त्वार्थ में स्वतन्त्र भादों की चर्चा के प्रसंग में उल्लेख नहीं होना आश्चर्यजनक नहीं है । तत्त्वार्थ सूत्र - शैलो का गद्य ग्रंथ है, जबकि प्रशमरति विवेचनात्मक शैली में लिखो गई पद्यात्मक रचना है, अत: उसमें अधिक विस्तार से चर्चा की गई। सैद्धांतिक वैषम्य तो तब होता, जब उनमें पाँच भावों में कोई अन्तर होता और सान्निपातिक भाव कोई स्वतंत्र भाव होता । सान्निपातिक शब्द स्वयं ही इस तथ्य का सूचक है कि यह स्वतंत्र भाव नहीं है । एक हो लेखक जब विस्तार से कोई चर्चा करता है तो पूर्व में अनुक्त अनेक बातों का उल्लेख करता है । पुनः इस चर्चा में यदि प्रशमरति प्रकरण, तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य से उत्तरवर्ती सिद्ध हो तो भी उससे उसकी भिन्नकृतकता सिद्ध नहीं होती है, क्योंकि एक ही लेखक जब जीवन के विविध चरणों में विविध रचनाएँ लिखता है और उनमें अन्तर भी होता है ।
(iii) प्रशमरति, तत्त्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थभाष्य को भिन्न कृतक सिद्ध करने के लिए एक तर्क यह दिया जाता है कि तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य में काल को स्वतंत्र द्रव्य मानने के विषय में तटस्थता प्रदर्शित की गई है, जबकि प्रशमरति में कालद्रव्य को समान भाव से स्वीकार किया गया है। श्रीमती डॉ० कुसुम पटोरिया लिखती हैं कि प्रशमरति प्रकरणकार ने छहों द्रव्यों का एक साथ प्रतिपादन किया । तत्त्वार्थसूत्र की तरह प्रशमरति प्रकरण में काल के विषय में अपनी तटस्थता प्रदर्शित नहीं की है । इससे प्रतीत होता है कि प्रशमरति प्रकरणकार छहों द्रव्यों के अन्तर्गत कालद्रव्य को भी स्वतंत्र रूप से स्वीकार करते हैं ( देखें कारिका २०६ एवं २१०) ' इस आधार पर वे यह फलित निकालती है कि प्रशमरति प्रकरणकार और तत्त्वार्थसूत्रकार भिन्न-भिन्न व्यक्ति है ।
१. यापनीय और उनका साहित्य, डॉ० कुसुम पटोरिया, पृ० ११६ ।
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