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२५८ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
के बीच समय का एक लम्बा अंतराल है । इस सन्दर्भ में मैं यह बताना आवश्यक समझता हूँ कि वह युग लेखन का युग नहीं था । तत्त्वार्थ भाष्य के काल तक जैन परम्परा में पुस्तक लेखन की प्रवृत्ति विकसित नहीं हुई थी । मुनि के लिए ग्रन्थ लेखन और लिखित ग्रन्थों का संग्रह करना प्रायश्चित्त योग्य अपराध माने जाते थे । क्योंकि ताड़पत्रों पर ग्रन्थ लिखने और उनका संग्रह करने दोनों में जीव हिंसा अपरिहार्य थी । जबकि सर्वार्थसिद्धि जिस काल में लिखी गई उस काल में लेखन की परम्परा प्रारम्भ हो चुकी थी । श्वेताम्बर परम्परा में सर्वप्रथम वो० नि० सं० ९८० अर्थात् विक्रम सं० ५१० या ई० सन् ४५३ में यह सुनिश्चित किया गया कि यदि आगम साहित्य की रक्षा करना है तो उन्हें ताड़पत्रों पर लिखवाना और संग्रहित करना होगा । इस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में ग्रन्थ लेखन की प्रवृत्ति तत्त्वार्थ भाष्य की रचना के लगभग दो सौ वर्ष बाद प्रारम्भ हुई । जो ग्रन्थ मुखाग्र परम्परा से २०० वर्षों तक चला हो उसमें पाठ भेद हो जाना आश्चर्यजनक नहीं है । यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि सभी मुनि तत्त्वार्थसूत्र को उसके भाष्य के साथ ही कंठस्थ तो नहीं नहीं करते थे, कुछ मात्र सूत्र को कंठस्थ करते रहे होंगे । अतः सूत्रगत पाठ और भाष्यगत पाठ में क्वचित् अन्तर आ गया हो । २०० वर्ष तक की मौखिक परम्परा में सूत्र और भाष्य के पाठों में कुछ अन्तर आ जाना अस्वाभाविक भी नहीं है ।
पुनः हमारे दिगम्बर विद्वान् जितने अधिक जोर-शोर से इस पाठभेद की चर्चा को उछालते है, वैसा भी कुछ नहीं है, एक ही सूत्र में दो सर्व पद होने पर एक का छूट जाना, अस्वाभाविक नहीं है । इसी प्रकार 'नित्याऽवस्थितान्याः रूपानि' को एक सूत्र या दो सूत्र के रूप में स्वीकार करना कोई बहुत बड़ा अन्तर नहीं है । इन दो-तीन छोटी-छोटी बातों को उछालकर येन केन प्रकारेण भाष्य को सर्वार्थसिद्धि और अकलंक के राजवार्तिक से पीछे ले जाने का प्रयत्न है ताकि यह कहा जा सके कि दिगम्बर परम्परा के विद्वान् पूज्यपाद और अकलंक ने भाष्य से कुछ नहीं लिया है, बल्कि भाष्यकार ने हो उनसे लिया है ।
दिगम्बर परम्परा के निष्पक्ष विद्वान् पं० नाथूराम प्रेमी ने पं० सुखलालजी के समान ही अनेक तर्क देकर भाष्य को स्वोपज्ञ और तत्त्वार्थसूत्र की प्राचीनतम टीका मान रहे हैं । दूसरे लोग उसे स्वोपज्ञ मानने जैन साहित्य और इतिहास ( पं० नाथूरामजी प्रेमी ) पु० ५२४-५२९ ॥
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