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सिद्धान्त विद्याधर और उनके सम्मतिसूत्र की परम्परा : २२७ म्बर ग्रन्थों में सन्मतिसूत्र के कर्ता के रूप में सिद्धसेन का उल्लेख है, तो फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि प्रबन्धों में जो सिद्धसेन का उल्लेख है, वह सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन का न होकर कुछ द्वात्रिंशिकाओं और मायावतार के कर्ता किसी अन्य सिद्धसेन का है । पुनः श्वेताम्बर आचार्यों ने यद्यपि सिद्धसेन के अभेदवाद का खण्डन किया और उन्हें आगमों की अवमानना करने पर दण्डित किसे जाने का उल्लेख भी किया है, किन्त किसी ने भी उन्हें अपने से भिन्न परम्परा या सम्प्रदाय का नहीं बताया है। श्वेताम्बर परम्परा के विद्वान् उन्हें मतभिन्नता के बावजूद भी अपनी ही परम्परा का आचार्य प्राचीन काल से मानते आ रहे हैं। श्वेता. म्बर ग्रन्थों में उन्हें दण्डित करने की जो कथा प्रचलित है, वह भी यही सिद्ध करती है कि वे सचेल धारा में ही दीक्षित हुए थे, क्योंकि किसी आचार्य को दण्ड देने का अधिकार अपनी ही परम्परा के व्यक्ति को होता है-अन्य परम्परा के व्यक्ति को नहीं। अतः सिद्धसेन दिगम्बर परम्परा के आचार्य थे, यह किसी भी स्थिति में सिद्ध नहीं होता है ।
केवल यापनीय ग्रन्थों और उनको टीकाओं में सिद्धसेन का उल्लेख होनेसे इतना ही सिद्ध होता है कि सिद्धसेन यापनीय परम्परा में मान्य रहे हैं। पुनः श्वे० धारा से कुछ बातों में अपनी मत-भिन्नता रखने के कारण उनको यापनीय या दिगम्बर परम्परा में आदर मिलना अस्वाभाविक भी नहीं है। जो भी हमारे विरोधी का आलोचक होता है, वह हमारे लिए आदरणीय होता है, यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है। कुछ श्वेताम्वर मान्यताओं का विरोध करने के कारण सिद्धसेन यापनीय और दिगम्बर दोनों में आदरणीय बने हैं, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि वे दिगम्बर या यापनीय हैं। यह तो उसी लोकोत्ति के आधार पर हुआ है कि 'शत्रु का शत्रु मित्र होता है।' किसी भी दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थ में सिद्धसेन के जीवन वृत्त का उल्लेख न होने से तथा श्वे० परम्परा में उनके जीवनवृत्त का सविस्तार उल्लेख होने से तथा श्वेताम्बर परम्परा द्वारा उन्हें कुछ काल के लिए संघ से निष्कासित किये जाने के विवरणों १. देखें-प्रभावकचरित्त-प्रभाचन्द्र-सिंधी जैन ग्रन्थमाला पृ० ५४-६१ ।
प्रबन्धकोश (चतुर्विंशतिप्रबन्ध)-राजशेखरसूरि-सिंधी जैन ज्ञानपीठ पृ० १५-२१
प्रबन्ध चिन्तामणि मेरुतुंग-सिंधी जैन ज्ञानपीठ पृ० ७-९ २. प्रभावकचरित-वृद्धवादिसूरिचरितम् पृ० १०७-१२०
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