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११४ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय उल्लेख से सिद्ध हैं कि तिलोयपण्णत्ति की रचना के पूर्व कम्मपयडीचूर्णि की रचना हो चुकी थी। इससे यही सिद्ध होता है कि यतिवृषभ का काल ६-७ शताब्दी है, क्योंकि अन्य प्राचीनचूणियों का रचना काल भी यही है। पं० हीरालालजी ने कम्मपयडी शतक और सित्तरी चूर्णियों के मंगल पद्यों की शब्दावली और शैलीगत एकरूपता को स्पष्ट किया है।' यह सत्य है कि वे सभी मंगल पद्य नन्दीसूत्र की आदि मंगल गाथाओं से प्रभावित है और यही सिद्ध करते हैं कि ये चूर्णियाँ नन्दीसूत्र के बाद की हैं और उसी परम्परा की हैं।
• भाष्य और चूणि लिखने की परम्परा श्वेताम्बरों में हो रही है, दिगम्बरों ने न तो कोई भाष्य लिखा गया और न कोई चूणि ही। अतः सम्भावना यही है कि यतिवृषभ के चूर्णिसूत्र यापनीय परम्परा के ही होंगे, क्योंकि यापनियों और श्वेताम्बरों में आगमिक ज्ञान का पर्याप्त आदानप्रदान हुआ है।
यदि यतिवृषभ, आर्यमा और नागहस्ति के परम्परा शिष्य भी हो तो सम्भावना यही है कि वे बोटिक / यापनीय होंगे। क्योंकि उत्तर भारतीय अबियल निर्ग्रन्थ परम्परा के आर्य मंक्षु और नागहस्ति का सम्बन्ध बोटिक/ यापनीयों से हो सकता है, मूलसंघीय दक्षिण भारतीय कुन्दकुन्द की दिगम्बर परम्परा से नहीं। । प्राकृत लोक विभाग, जिसके कर्ता सर्वनन्दी हैं, का उल्लेख यतिवृषभ ने अपनी तिलोयपण्णत्ति में पाँच बार किया है। शिवार्य ने भगवती आराधना में जिननन्दी, सर्वगुप्तगणि और मित्रनन्दी का उल्लेख अपने गुरुओं के रूप में किया है । पं० नाथूराम प्रेमीजी ने यह माना है कि ये सर्वगुप्तगणि ही सर्वनन्दी हों । साथ ही उन्होंने इन्हें यापनीय होने की सम्भावना प्रकट की है। अतः सम्भव यही है कि यतिवृषभ ने तिलोयपण्णत्ति में अपनी ही परम्परा के आर्य सर्वनन्दी की कृति को उद्धृत किया हो।।
यतिवृषभ के आगे विशेषण के रूप में जो यति विरुद है वह भी श्वेताम्बरों और यापनीयों में प्रचलित रहा है । इन्द्रनन्दी ने श्रुतावतार में उन्हें यतिपति कहा है। यापनीय-शाकाटायन का यतिग्राम-अग्रणी
१. कसायपाहुडसुत्त प्रस्तावना पृ० ५२-५३ २. जैनसाहित्य और इतिहास, (पं० नाथुरामजी प्रेमी) पृ०१-३ ३. यतिवृषभनामधेयो"ततो यतिपतिना । श्रुतावतार १५५-५६
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