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यापनीय साहित्य : १५५ दयाटोका तो अनेक कारणों से यापनीय ही सिद्ध होती है । इस सम्बन्ध में पं० नाथरामजी प्रेमी ने अपने ग्रन्थ 'जैन साहित्य और इतिहास' में तथा श्रीमती ( डा. ) कुसुम पटोरिया ने 'यापनीय और उनका साहित्य' में विस्तार से चर्चा की है। हम उसी आधार पर यहाँ संक्षेप में चर्चा करेंगे। अपराजितसूरि और उनकी मूलाराधना की विजयोदयाटीका को निम्न आधारों पर यापनीय माना जा सकता है
(१) भगवतीआराधना को टीका की अन्तिम प्रशस्ति में अपराजित सूरि ने अपने को चन्द्रनन्दि का प्रशिष्य और बलदेवसूरि का शिष्य कहा है। गंगवंश के पृथुवीकोङ्गणि महाराज के ईस्वी सन् ७७६ के एक दानपत्र में-श्रीमूलगण नन्दिसंघ के चन्द्रनन्दी नामक आचार्य का उल्लेख है। यदि अपराजित इन्हीं चन्द्रनन्दी के प्रशिष्य हैं तो इस आधार पर इन्हें यापनीय मानने में कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि श्रीमूल मूळगण और नन्दिसंघ यापनीय हैं। इस अभिलेख के आधार पर इनका काल लगभग आठवीं का उत्तरार्ध और नवीं का पूर्वार्ध सिद्ध होता है।
(२) भगवतीआराधना की टीका में अपराजित ने अपने द्वारा दशवैकालिक पर भी टीका लिखे जाने का निर्देश किया है। साथ ही उन्होंने भगवतीआराधना को इस टीका में आचारांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, व्यवहार, कल्प आदि श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आगम ग्रन्थों को प्रमाण रूप स्वीकार करके उनके अनेक उद्धरण भी प्रस्तुत किये हैं। इससे यह फलित होता है कि उन्हें ये सब आगम ग्रन्थ न केवल ज्ञात थे, अपितु प्रमाण रूप में स्वीकार भी थे। यह सुस्पष्ट है कि अचेल परम्परा में यापनीय सम्प्रदाय ही ऐसा सम्प्रदाय था, जो इन आगम ग्रन्थों के प्रामाण्य को स्वीकार करता है। इस आधार पर भी अपराजितसूरि और उनकी विजयोदयाटीका का यापनीय होना सुनिश्चित है।
(३) आराधना की विजयोदयाटीका में इस प्रश्न पर भी पर्याप्त १. चन्द्रनन्दिमहाकर्मप्रकृत्याचार्यप्रशिष्येण आरातीयसूरिचूलामणिना नागनन्दि
गणिपादपमोपसेवाजातमतिलवेन बलदेवसूरिशिष्येण जिनशासनोद्धरणधीरेण लब्धयशःप्रसरेण अपराजितसूरिणा श्रीनन्दिगणिनावचोदिनेन रचिता आराधनाटोका श्रीविजयोदयानाम्ना समाप्ता।
-भगवतीआराधना (विजयोदयाटीका ) अन्तिम प्रशस्ति २. जैन शिलालेख संग्रह, भाग दो, लेख क्रमांक १२१ । ३. दशवैकालिकटीकायां श्रीविजयोदयायां प्रपञ्चिता उगमादिदोषा इति नेह
प्रतन्यते । -भगवतीआराधना ( बिजयोदयाटीका ), भाग २, पृ० ६०४ ।
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