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यापनीय साहित्य : १७७
पुनः समवायांग में उन्हें स्वर्गगामी और भावी तीर्थंकर कहा गया है ।" नारद को चरमशरीरी अथवा स्वर्गगामी मानना, यह आगमिक परंपरा है । चूँकि यापनीय आगमों को स्वीकार करते थे, अतः उनके ग्रन्थों में ऐसा उल्लेख होना स्वाभाविक ही था । इस आधार पर भी जिनसेन और उनके हरिवंश पुराण का यापनीयत्व ही सिद्ध होता है ।
यह स्पष्ट है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं में जम्बू के पश्चात् आचार्य परम्परा में भेद हो जाता है । दिगम्बर परम्परा जम्ब के पश्चात विष्णु का उल्लेख करती है जबकि श्वेताम्बर परम्परा प्रभव का । रविषेण के द्वारा सुधर्मा के पश्चात् आचार्य परम्परा में प्रभव को स्थान देना इस बात को पुष्ट करता है कि वे उस परम्परा से भिन्न थे जो कि आचार्य विष्णु को जम्बू का उत्तराधिकारी मानती थी । यापनीय उत्तर भारत की उस निर्ग्रन्थ धारा से अलग हुये थे जो कि आर्य प्रभव को आर्य जम्बू का उत्तराधिकारी मानती थी । 'कल्पसूत्र' में उल्लिखित यह आचार्य परम्परा यापनीयों को ही मान्य हो सकती है, दिगम्बरों को नहीं । क्योंकि यापनीय ' कल्पसूत्र' को न केवल मान्य करते थे, अपितु पर्युषण के अवसर पर उसका वाचन भी करते थे । अपने कथा स्रोत में आर्य प्रभव का यह उल्लेख यही सिद्ध करता है कि रविषेण यापनीय परम्परा के रहे होंगे ।
(२) जैनों में रामकथा की दो परम्पराएँ उपलब्ध होती हैं- एक परम्परा का अनुसरण कूचि भट्टारक ( सम्भवतः ये पूर्व उल्लिखित कूर्चक संघ के प्रथम पुरुष होंगे), नन्दी मुनीश्वर, कवि परमेश्वर, जिनसेन (आदिपुराण के कर्त्ता ), गुणभद्र और चामुण्डराय के द्वारा लिखित रामकथाओं में किया गया। जबकि दूसरी धारा का अनुसरण विमलसूरि के पउचरियं, रविषेण के पद्मचरित और स्वयंभू के पउमचरिउ में देखा जाता है । विमलसूरि को यह कथा परम्परा श्वेताम्बर आचार्य शीलांक के चउपन्नमहापुरिसचरियं' और हेमचन्द्र के 'त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित' में भी पाई जाती है । इससे यह स्पष्ट होता है कि रामकथा की एक परम्परा दक्षिण के दिगम्बर आचार्यों में प्रचलित रही और दूसरी परम्परा उत्तर भारत के
१. समवायांग -- प्रकीर्णक समवाय ६६८/८१ ।
२. वर्द्धमानजिनेन्द्रोक्तः सोऽयमर्थो गणेश्वरं । इन्द्रभूति परिप्राप्तः सुधर्मं धारिणीभवम् ।। प्रभवं क्रमतः कीर्ति ततोऽनुत्तरवाग्मिनं । लिखितं तस्य संप्राप्य रवेर्यत्नोय मुद्गतः - पद्मचरित १/४१ - ४२, १२३/१६ ।
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