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यापनीय साहित्य : २०७
यापनीय सम्प्रदाय के कण्डूरगण के एक अन्य प्रभाचन्द्र (लगभग ९८० ई०) का भी उल्लेख प्राप्त होता है। ये प्रभाचन्द्र आगम और व्याकरण के विशिष्ट विद्वान थे इनका समय ईसा की दसवीं शताब्दी का उत्तरार्ध माना जाता है।' पुनः यापनीय कण्डूरगण के इन प्रभाचन्द्र का काल शक सम्वत् ९०२ या ईस्वी सन् ९८० है, जबकि न्याय कुमुदचन्द्र के कर्ता का काल आदरणीय महेन्द्रकुमार जो न्यायाचार्य ने लगभग ईस्वी सन् १०२० माना है। इससे यापनीय संघ के कण्डूरगण के ये प्रभाचन्द्र उनसे पूर्ववर्ती या वयोवृद्ध-समकालीन सिद्ध होंगे, अतः उनके साथ लगा यह बृहद् विशेषण भी सम्यक है। ये शाकटायन न्यास एवं प्रतिक्रमण के टीकाकार भी हैं 'पूज्यपाद ने भी प्रभाचन्द्र के एक सूत्र को अपने जैनेन्द्र व्याकरण में उदधत किया है। उससे ऐसा लगता है कि पूज्यपाद के पूर्व भी एक प्रभाचन्द्र हुए हैं. जो व्याकरण के विद्वान थे। इनका समय पूज्यपाद के पूर्व ही रहा होगा। किन्तु अभिलेख में उल्लेखित यापनीय कण्डूरगण के प्रभाचन्द्र और ये प्रभाचन्द्र एक ही व्यक्ति नहीं हो सकते हैं। पूज्यपाद छठी शती पूर्व हुए हैं ऐसी स्थिति में तो दोनों प्रभाचन्द्र भिन्न काल के होंगे और भिन्न व्यक्ति होंगे। मेरी दृष्टि में यह तत्त्वार्थसूत्र यापनीय प्रभाचन्द्र का ही होना चाहिए। इसमें षोडश स्वर्गों का उल्लेख एवं 'सत्त्वं द्रव्य लक्षणम्' सूत्र होने के कारण यह प्रति श्वेताम्बर परम्परा से तो निश्चित ही भिन्न परम्परा की है, किन्तु इसको विषय-वस्तु में ऐसा कुछ भी नहीं है 'जिससे इसे यापनीय परम्परा का मानने में कोई बाधा उत्पन्न हो । जैसा कि तत्त्वार्थसूत्र के सम्बन्ध में मैंने सिद्ध किया है कि दिगम्बर परम्परा में गृहीत मूलपाठ यापनीय परम्परा से लिया गया है और प्रभाचन्द्र का यह तत्त्वार्थसूत्र भी सामान्यतया दिगम्बर परम्परा में मान्य उसी यापनोय पाठ का अनुसरण कर रहा है। इसके अन्त में दिया गया जिनकल्पीसूत्र विशेषण इसके यापनीय होने का प्रमाण दे देता है। क्योंकि यापनीय श्वेताम्बरों के समान स्थविरकल्प और जिनकल्प दोनों को मान्य करके भी जिनकल्प पर विशेष बल देते हैं। यापनीय ग्रन्थ भगवती आराधना एवं मूलाचार में जिनकल्प और स्थविरकल्प के उल्लेख पाये जाते हैं, इससे यही सिद्ध होता है कि इस तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता प्रभाचन्द्र यापनीय १. जैन शिलालेख संग्रह भाग २, लेखक्रमांक १६० । २. न्यायकुमुदचन्द्रः प्रथमोभागः (पण्डित महेन्द्र कुमार, माणिकचन्द्र दिगम्बर
जैन ग्रन्थ माला, बम्बई) भूमिका, पृ० १२३ । ३. भगवती आराधना १५७
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