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यापनीय साहित्य : २०९ उल्लेख है ।' जबकि दिगम्बर परम्परा के कथा ग्रन्थों में सामान्यतया श्रेणिक के पूछने पर गौतम गौतम गणधर ने कहा- ऐसी पद्धति उपलब्ध होती है । जहाँ तक पउमचरियं का प्रश्न है उसमें निश्चित ही श्रेणिक के पूछने पर गौतम ने रामकथा कही ऐसी ही पद्धति उपलब्ध होती है । २ किन्तु मेरो दृष्टि में इस तथ्य को पउमचरियं के दिगम्बर परम्परा से सम्बद्ध होने का आधार नहीं माना जा सकता, क्योंकि पउमचरियं में स्त्रीमुक्ति आदि ऐसे अनेक ठोस तथ्य हैं, जो श्वेताम्बर परम्परा के पक्ष में ही जाते हैं । यह संभव है कि संघभेद के पूर्व उत्तर भारत की निर्ग्रन्थ परम्परा में दोनों ही प्रकार की पद्धतियाँ समान रूप से प्रचलित रही हों और बाद में एक पद्धति का अनुसरण श्वेताम्बर आचार्यों ने किया हो और दूसरी का दिगम्बर एवं यापनीय आचार्यों ने किया हो । यह तथ्य विमलसूरि की परम्परा के निर्धारण में बहुत अधिक सहायक इसीलिए भी नहीं होता है, कि प्राचीन काल में, श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों में, ग्रन्थ प्रारंभ करने की अनेक शैलियाँ प्रचलित रही हैं । दिगम्बर परम्परा में विशेष रूप से यापनियों में जम्बू और प्रभव से भी कथा परम्परा के चलने का उल्लेख तो स्वयं पद्मचरित में ही मिलता है । वहो क्रम श्वेताम्बर ग्रन्थ वसुदेवहिण्डी में भी है । 3 श्वेताम्बर परम्परा में भी कुछ ऐसे भी आगम ग्रन्थ हैं, जिनमें किसी श्राविका के पूछने पर श्रावक ने कहा- इससे ग्रन्थ का प्रारम्भ किया गया है । देविन्दत्थव नामक प्रकीर्णक में श्रावक-श्राविका के संवाद के रूप में ही उस ग्रन्थ का समस्त विवरण प्रस्तुत किया गया है । आचारांग में शिष्य की जिज्ञासा समाधान हेतु गुरु के कथन से ही ग्रन्थ का प्रारम्भ हुआ है ।" उसमें जम्बू और सुधर्मा के संवाद का कोई १. ति तस्सेव पभवो कहेयव्वो, तप्पभवस्स य पभवस्स त्ति । वसुदेवहिण्डी ( संघदासगणि), गुजरात साहित्य अकादमी, गाँधीनगर, पृ० २ । २. तह इन्दभूइकहियं, सेणियरण्णस्स नीसेसं । -- पउमचरियं १, ३३ ३. वद्ध' मानजिनेन्द्रोक्तः सोऽयमर्थो गणेश्वरं ।
इन्द्रभूतिं परिप्राप्तः सुधर्मं धारिणीभवम् ।।
तत्तोनुत्तरवाग्मिनं । रवेर्यत्नोयमुद्गतः ॥
४. देविदत्थओ ( दवेन्द्रस्तव,
- पद्मचरित १ / ४१-४२ पर्व १२३ / १६६ सम्पादक - प्रो० सागरमल जैन, आगम-अहिंसासमता प्राकृत संस्थान, उदयपुर) गाथा क्रमांक - ३, ७, ११, १३, १४
प्रभवं क्रमतः कीर्ति लिखितं तस्य संप्राप्य
५. सुयं मे आउ ! तेणं भगवया एवमक्खायं । - आचारांग (सं० मधुकर मुनि ),
१।१।१।१
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