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यापनीय साहित्य : १७९
(४) वे० आचार्य उद्योतनसूरि द्वारा विमल के पउमचरियं के साथ रविषेण की पद्मचरित की प्रशंसा और पुन्नाटसंघीय जिनसेन द्वारा रविण के पद्मचरित की प्रशंसा यही सूचित करती है कि रविषेण उस परम्परा से रहे हैं जो एक ओर श्वेताम्बरों के तथा दूसरी ओर पुन्नाट संघ के निकट हो । श्वेताम्बर और यापनीय एक ही धारा से विकसित हुए, अतः दोनों में पग-पग पर निकटता देखी जाती है । पुनः पुन्नाटसंघ भी यापनीय परम्परा से विकसित है, अतः इनके द्वारा यापनीय रविषेण की प्रशंसा स्वाभाविक है ।
इस प्रकार पद्मचरित में उल्लिखित कथा स्रोत में प्रभव स्वामी का उल्लेख और गुरु परम्परा में इन्द्र का उल्लेख, कथा लेखन में विमलसूरि के पउमचरियं का अनुसरण तथा बाद में स्वयंभू के द्वारा भी प्रभव स्वामी के उल्लेखपूर्वक रविषेण की कथा को अपनाना, ये सब तथ्य इस बात को सूचित करते हैं कि वे यापनीय परम्परा के रहे होंगे ।
इसके अतिरिक्त डॉ० कुसुम पटोरिया' ने रविषेण के कई ऐसे उल्लेखों की भी चर्चा की है, जो दिगम्बर परम्परा के विपरीत है । उनके अनुसार निम्न उल्लेख रविषेण को दिगम्बर परम्परा और गुणभद्र की रामकथा परम्परा से भिन्न सिद्ध करते हैं :
(i) गन्धर्व देवों को मद्यपी मानना ।
(ii) यक्ष-राक्षसों को कवलाहारी मानना ।
(iii) सोलहवें स्वर्ग में प्रतीन्द्र के रूप में जन्मे सीता के जीव का रावण को सम्बोधित करने के लिए नरकानरक में जाना ( ज्ञातव्य है कि दिगम्बर परम्परा के अनुसार बारहवें से सोलहवें स्वर्ग तक के देव प्रथम नरक के चित्रा भाग से आगे नहीं जाते हैं ) ।
(iv) भरत चक्रवर्ती के द्वारा मुनियों के लिए बनाये गए औद्देशिक आहार को लेकर समवसरण में पहुँचना और ऋषभ द्वारा यह कहा जाना कि मुनि उद्दिष्ट भोजन नहीं करता ( यापनीय ग्रन्थों में मुनि के लिए
देशिक आहार का निषेध है ), किन्तु दिगम्बरों में यह परम्परा प्रचलित नहीं रही है, आज सामान्यतया दिगम्बर मुनि औद्देशिक आहार ग्रहण करते हैं ।
(v) सगर चक्रवर्ती के पूर्वभव तथा उनके पुत्रों का नागकुमार देव के कोप से भस्म होना ।
१. यापनीय और उनका साहित्य, पृ० १४८-१४९ ।
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