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२०० : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
और सदाचार से ही ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया था। इस प्रकार हम देखते हैं कि वर्ण-व्यवस्था के सन्दर्भ में वरांगचरितकार का दृष्टिकोण उत्तराध्ययन आदि की आगमिक धारा के निकट है। पुनः इस आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि जटासिंहनन्दि उस दिगम्बर परम्परा के नहीं हैं जो शूद्र-जलग्रहण और शूद्र-मुक्ति का निषेध करती है । इससे जटासिंहनन्दि और उनके ग्रन्थ वरांगचरित के यापनीय अथवा कुर्चक होने की पुष्टि होती है। पाल्यकोति शाकटायन और उनका शाकटायन व्याकरण
जैन परम्परा में ईसा की ९वीं में रचित शाकटायन का व्याकरण अति प्रसिद्ध है। स्वयं ग्रन्थकर्ता और टीकाकारों ने इसे 'शब्दानुशासन' नाम दिया है । इस शब्दानुशासन पर शाकटायन ने स्वयं ही अमोघवृत्ति नामक टीका लिखी है । शाकटायन का मूल नाम पाल्यकीति है । शाकटायन पाल्यकीर्ति के सम्प्रदाय के सम्बन्ध में विद्वानों में पूर्व में काफी मतभेद रहा । चूकि शाकटायन के शब्दानुशासन के अध्ययन अध्यापन की प्रवृत्ति दक्षिण में दिगम्बर परम्परा में काफी प्रचलित थी और उस पर मुनि दयापाल आदि दिगम्बर विद्वानों ने टोका ग्रन्थ भी लिखे थे, अतः दिगम्बर विद्वान् उन्हें अपनी सम्प्रदाय का मानते थे। इसके विपरीत डॉ० के० पी० पाठक आदि ने शाकटायन की अमोघवृत्ति में आवश्यकनियुक्ति, छेदसूत्र और श्वेताम्बर परम्परा में मान्य कालिक ग्रन्यों का आदरपूर्वक.. उल्लेख देखकर उन्हें श्वेताम्वर मान लिया था। किन्तु ये दोनों धारणाएँ बाद में गलत सिद्ध हुई। अब शाकटायन पाल्यकीर्ति के द्वारा रचित स्त्रीमुक्ति प्रकरण तथा केवलिभुक्ति प्रकरण के उपलब्ध हो जाने से इतना तो सुनिश्चित हो गया, कि वे दिगम्बर परम्परा के नहीं है। क्योंकि स्त्री
१. ज्ञानं च न ब्रह्म यतो निकृष्टः शूद्रोऽपि वेदाध्ययनं करोति ॥४२॥
विद्याक्रियाचारुगुणैः प्रहीणो न जातिमात्रेण भवेत्स विप्रः । ज्ञानेन शीलेन गुणेन युक्तं तं ब्राह्मणं ब्रह्मविदो वदन्ति ॥४३॥ व्यासो वसिष्ठः कमठश्च कण्ठः शक्त्युग्दमौ द्रोणपराशरौ च । आचारवन्तस्तपसाभियुक्ता ब्रह्मत्वमायुः प्रतिसंपदाभिः ॥४४॥
-वरांगचरित सर्ग, ५२ २. जनसाहित्य और इतिहास, पं० नाथुराम प्रेमी पृ० १५७ । ३. शाकटायन व्याकरणम्, सं० पं० शम्भुनाथ त्रिपाठी
Indroduction. Page 14-15
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