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यापनीय साहित्य : १८१
नीय हैं तो उनकी कथा-धारा का अनुसरण करने वाले स्वयंभू भी यापनीय ही सिद्ध होते हैं । "
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३. यद्यपि स्वयंभू ने स्पष्ट रूप से अपने सम्प्रदाय का उल्लेख कहीं नहीं किया है किन्तु पुष्पदन्त के महापुराण के टिप्पण में उन्हे आपुली - संघीय बताया गया है। पंडित नाथूरामजी प्रेमी ने भी इन्हें यापनीय माना है ।
४. स्वयम्भू द्वारा दिवायर ( दिवाकर ), गुणहर ( गुणधर ), विमल( विमलसूरि ) आदि अन्य परम्परा के कत्रियों का आदरपूर्वक उल्लेख भी उनके यापनीय परम्परा से सम्बद्ध होने का प्रमाण इसीलिये माना जाना चाहिये कि ऐसी उदारता यापनीय परम्परा में देखी जाती है' दिगम्बर परम्परा में नहीं ।
५. स्वयंभू के ग्रन्थों में अन्यतैथिक की मुक्ति की अवधारणा को स्वीकार किया गया है । अन्यतैथिक की मुक्ति की अवधारणा आगfor है और आगमों को मान्य करने के कारण यह अवधारणा श्वेताम्बर और यपनीय दोनों में स्वीकृत रही है । उत्तराध्ययन, जिसमें स्पष्ट रूप से अन्यलिंग सिद्ध का उल्लेख है, यापनीयों को भी मान्य रहा है । जिनसेन 'ने 'हरिवंश' में स्पष्ट रूप से उसका उल्लेख किया है। प्रोफेसर एच० सी० भायाणी का मन्तव्य भी उन्हें यापनीय मानने के पक्ष में है । वे लिखते हैं कि यद्यपि इस सन्दर्भ में हमें स्वयंभू की ओर से प्रत्यक्ष या परोक्ष वक्तव्य नहीं मिलता है, परन्तु यापनीय सग्रन्थ अवस्था तथा परशासन से भी मुक्ति स्वीकार करते थे और स्वयंभू अपेक्षाकृत अधिक उदारचेता थे, अतः उन्हें यापनीय माना जा सकता है ।
एक ओर अचेलकत्व पर बल और दूसरी ओर श्वेताम्बर मान्य आगमों में उल्लिखित अनेक तथ्यों की स्वीकृति उन्हें यापनीय परम्परा से
१. एह रामकह-सरि सोहन्ती । गणहरदेवहि दिट्ठ वहन्ती । पच्छइ इन्दभूइ आयरिएं । पुणु धम्मेण गुणालंकरिए ॥ पुणु पहवे संसाराराएं । कित्तिहरेणं अणुत्तरवाए । पुणु रविसेणायरियपसाएँ । बुद्धिए अवगाहिय कइराए ॥
- पउमचरिउ १ / ६-९ ।
२. सयंभु पद्धडीबद्धकर्ता आपली संधीय । - महापुराण ( टिप्पणयुक्त ) पृ० ९ । ३. जैन साहित्य और इतिहास ( पं० नाथूराम प्रेमी ), पृ० १९७ ।
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