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१८२ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय ही सम्बद्ध करती है। श्रीमती कुसुम पटोरिया भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचती हैं । वे लिखती हैं कि हमारी दृष्टि से महाकवि पुष्पदन्त के महापुराण के टीकाकार ने जिस परम्परा के आधार पर इन्हें आपलीसंघीय कहा है वह परम्परा वास्तविक होनी चाहिए। साथ ही अनेक तथ्यों से इनके यापनीय होने का समर्थन होता है ।
इनके अतिरिक्त भी डॉ० कुसुम पटोरिया ने स्वयम्भू के ग्रन्थों के अध्ययन के आधार पर अन्य कुछ ऐसे प्रमाण प्रस्तुत किये हैं, जिससे वे कुछ मान्यताओं के सन्दर्भ में दिगम्बर परम्परा से भिन्न एवं यापनीय प्रतीत होते हैं
१. दिगम्बर परम्परा के तिलोयपण्णत्ती, त्रिलोकसार और उत्तरपुराण में राम ( बलराम ) को आठवाँ और पद्म ( रामचन्द्र ) को नवाँ बलदेव बताया गया है। जबकि श्वेताम्बर ग्रन्थों यथा समवायांग, पउमचरियं, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, अभिधानचिन्तामणि, विचारसारप्रकरण आदि में पद्म (राम) को आठवाँ और बलराम को नवाँ बलदेव कहा गया है। राम का पद्म नाम दिगम्बर परम्परानुसारी नहीं है, राम का पद्म नाम मानने के कारण रविषेण और स्वयम्भू दोनों यापनीय प्रतीत होते हैं।
२. देवकी के तीन युगलों के रूप में छह पुत्र कृष्ण के जन्मके पूर्व हुए थे, जिन्हें हरिणेगमेसी देव ने सुलसा गाथापत्नी के पास स्थानान्तरित कर दिया था। स्वयम्भू के रिट्ठनेमिचरिउ का यह कथानक श्वेताम्बर आगम अंतकृतदशा में यथावत् उपलब्ध होता है। स्वयम्भू द्वारा आगम का यह अनुसरण उन्हें यापनीय सिद्ध करता है।
३. स्वयम्भू ने पउमचरिउ में देवों की भोजनचर्या में उल्लेख लिखा है कि गन्धर्व पूर्वाह्न में, देव मध्याह्न में, पिता-पितामह ( पितृलोक के देव ) अपराह्न में और राक्षस, भूत, पिशाच एवं ग्रह रात्रि में खाते हैं, जबकि दिगम्बर परम्परा के अनुसार देवता कवलाहारी नहीं है उनके अनुसार देवताओं का मानसिक आहार होता हैं ( देवेसु मणाहारो )
४. इन्होंने कथास्रोत का उल्लेख करते हुए क्रम से महावीर, गौतम, सुधर्म, प्रभव, कीर्ति और रविषेण का उल्लेख किया है। प्रभव को स्थान देना उन्हें दिगम्बर परम्परा से पृथक करता है क्योंकि दिगम्बर परम्परा में इनके स्थान पर विष्णु का उल्लेख मिलता है । यद्यपि इनके रिट्ठनेमि
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