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यापनीय साहित्य : १९५
अनुसरण किया है' । कुन्दकुन्द विमलसूरि से तो निश्चित हो परवर्ती हैं और सम्भवतः जटासिंहनन्दि से भी । अतः उनके द्वारा किया गया यह अनुसरण अस्वाभाविक भी नहीं है । स्मरण रहे कि कुन्दकुन्द ने त्रस-स्थावर के वर्गीकरण, चतुर्विध मोक्षमार्ग आदि के सम्बन्ध में भी आगमिक परम्परा का अनुसरण किया है और उनके ग्रन्थों में प्रकीर्णकों की अनेक गाथायें मिलती हैं । विमलसूरि के पउमचरियं का अनुसरण, रविषेण, स्वयम्भू आदि अनेक यापनीय आचार्यों ने किया है, अतः जटासिंहनन्दि के यापनीय होने की संभावना प्रबल प्रतीत होती है ।
(९) जटासिंहनन्दि ने वरांगचरित के नवें सर्ग में कल्पवासी देवों के प्रकारों का जो विवरण प्रस्तुत किया है वह दिगम्बर परम्परा से भिन्न है । वैमानिक देवों के भेद को लेकर श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में स्पष्ट रूप से मतभेद है । जहाँ श्वेताम्बर परम्परा वैमानिक देवों के १२ विभाग मानती है वहाँ दिगम्बर, परम्परा उनके १६ विभाग मानती है । इस सन्दर्भ में जटासिंहनन्दि स्पष्ट रूप से श्वेताम्बर या आगमिक परम्परा के निकट हैं । वे नवें सर्ग के द्वितीय श्लोक में स्पष्ट रूप से यह कहते हैं कि कल्पवासी देवों के बारह भेद हैं । पुनः इसी सर्ग के सातवें श्लोक से नवें श्लोक तक उत्तराध्ययन सूत्र के समान उन १२ देवलोकों के नाम भी गिनाते हैं । यहाँ वे स्पष्ट रूप से न केवल दिगम्बर परम्परा से भिन्न होते
१. पंचेवणुव्वयाई गुणव्वयाई हवंति तह तिष्णि । सिक्खावय चत्तारिय संजमचरणं च सायारं ॥ थूले तसकायवहे थूले मोसे अदत्तथूले य । परिहरो परमहिला परिग्गहारंभ परिमाणं ॥ दिसिविदिसिमाणं पढमं अणत्थदंडस्स वज्जणं विदियं । भोगोपभोगपरिमाण इयमेव गुणव्वया तिष्णि ॥ सामाइयं च पढमं विदियं च तहेव पोसहं भणियं । तइयं च अतिहिपुज्ज चउत्थ सल्लेहणा अंते ॥
- चरित पाहुड, गाथा २३-२६ २. दशप्रकारा भवनाधिपानां ते व्यन्तरास्त्वष्टविधा भवन्ति । ज्योतिर्गणाश्चापि दशार्धभेदा द्विषट्काराः खलु कल्पवासाः ॥
- वरांचरित ९/२
३. सौधर्मकल्पः प्रथमोपदिष्ट ऐशानकल्पश्च पुनद्वतीयः । सनत्कुमारो द्युतिमांस्तृतीयो माहेन्द्रकल्पश्च चतुर्थ उक्तः ॥
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