________________
यापनीय साहित्य : १५९ यापनीय परम्पराएं इसे छठें व्रत के रूप में मान्य करती हैं । विजयोदयाटीका में रात्रि भोजन त्याग को छठा व्रत कहा जाना यही प्रमाणित करता है कि वह यापनीय कृति है ।
(८) दिगम्बर परम्परा अरहंत के अवर्णवाद के उदाहरण के रूप में केवल के कवलाहार को प्रस्तुत करती है किन्तु भगवती आराधना की विजयोदया टीका में अरहंत के अवर्ण वाद की चर्चा के प्रसंग में केवलि कवलाहार का उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया गया है । इस आधार पर श्रीमती कुसुम पटोरिया ने अपराजित और उनकी विजयोदया टीका को यापनीय माना है, जो उचित ही है । ४
(९) विजयोदयाटीका में जिनकल्प, परिहार संयम, आलन्द, विजहना आदि के आचार की जिन विशिष्ट विधियों का वर्णन है, उनका वर्णन दिगम्बर साहित्य में नहीं है, जबकि श्वेताम्बर मान्य साहित्य में मिलता है ।" इससे भी अपराजित के यापनीय होने की सम्भावना पुष्ट होती है।
(१०) विजयोदयाटीका में भिक्षु की ग्यारह प्रतिमाओं का विवरण उपलब्ध होता है । यह विवरण श्वेताम्बर आगम साहित्य में तो उपलब्ध होता है, किन्तु दिगम्बर परम्परा में कहीं भी भिक्षु प्रतिमाओं का कोई उल्लेख नहीं मिलता है । इससे यही सिद्ध होता है कि अपराजित श्वेताम्बर आगमों का ही अनुसरण कर रहे हैं । अतः यह भी उनके यापनीय होने का ही एक प्रमाण है ।
(११) मूलाचार, भगवती आराधना और विजयोदयाटीका में वृत्तिपरिसंख्यान तप के विवेचन के प्रसंग में सात घरों से भिक्षा लेने का उल्लेख पाया जाता है, वह दिगम्बर परम्परा के अनुकूल नहीं है । इससे यह भी सिद्ध होता है कि यापनीयों में श्वेताम्बरों के अनुरूप पात्र में २. ( अ ) दशवैकालिक और उसकी अगस्त्यचूर्ण, पृ० ८६ ।
(ब) भगवती आराधना ( टीका सहित) भाग १, पृ० ३३० । (स) सवार्थसिद्धि ६ । १९ ।
३. भगवती आराधना भाग १, पृ० ९१ ।
४. यापनीय और उनका साहित्य, पृ० १३४ ।
A.
वही, पृ० १३५ ॥
६. (अ) भगवती आराधना (टीका सहित) भाग १, पृ० ३७१ | (ब) यापनीय और उनका साहित्य, पृ० १३५ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org