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१५६ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय गहराई से चिन्तन किया गया है कि आगमों में स्त्र-पात्र के उल्लेख हैं-उनकी अचेलता की अवधारणा से कैसे संगति बिठाई जा सकती है ? टीकाकार अपराजित सूरि के अनुसार आगमों में जो वस्त्र-पात्र सम्बन्धी निर्देश हैं, वे आपवादिक हैं। आगमों में कारण विशेष में वस्त्र ग्रहण करने की अनुज्ञा है । आगमों को प्रमाण मानकर उनके वस्त्र-पात्र सम्बन्धी निर्देशों को आपवादिक रूप में व्याख्यायित करना यह टीकाकार के यापनीय होने का प्रमाण है। क्योंकि जो दिगम्बर परम्परा आगमों को प्रमाण नहीं मानती थी-उसके लिए यह समस्या ही नहीं थी, समस्या तो उन यापनीय आचार्यों के समक्ष थी, जो एक ओर अचेलता के समर्थक थे और दूसरी ओर आगमों को प्रमाण भी मान रहे थे। इससे यही सिद्ध होता है कि अपराजित और उनकी विजयोदयाटीका यापनीय है।
(४) भगवतोआराधना की विजयोदया टीका में आगमों में महावीर के वस्त्र सहित दीक्षित होने और बाद में उस वस्त्र के परित्याग के सम्बन्ध में जो विविध प्रवाद प्रचलित थे'-उनकी विस्तृत समीक्षा उपलब्ध होती है। अपराजित लिखते हैं कि जो भावना (आचारांग १. संवच्छर साहियं मासं, जं रिक्कासि वत्थगं भगवं । अचेलए ततो चाई. तं वोसज्ज वत्थमणगारे ॥
-आचारांग प्र० श्रु०, अ० ९, सूत्र ४ २. “यच्च भावनायामक्तं-वरिसं चीवरषारी तेण परमेचलगो जिणोति :
तदुक्तं विप्रतिपत्तिहुबलत्वात् । कथं ? केचिद्वदन्ति' तस्मिन्नेव दिने तद्वस्त्रं वीरजिनस्य विलम्बनकारिणा गृहीतमिति' । अन्ये 'षण्मासाच्छिन्नं तत्कण्टकशाखादिभिरिति ।' 'साधिकेन वर्षेण तद्वस्त्रं खंडलकब्राह्मणेन गहीतमिति केचित्कथयन्ति । केचिदवातेन पतितमपेक्षितं जिनेनेति । अपरे वदन्ति 'विलम्बनकारिणा जिनस्य स्कन्धे तदारोपितमिति ।' एवं विप्रतिपत्तिबाहुल्यान्न दृश्यते तत्त्वं । सचेललिंगप्रकटनाथ यदि चेलग्रहणं जिनस्य कथं तद्विनाश इष्टः । सदा तद्धारयितव्यम् । किं च यदि नश्यतीति ज्ञातं निरर्थक तस्य ग्रहणं। यदि न ज्ञातमज्ञानमस्य प्राप्नोति । अपि च चेलप्रज्ञापना वाञ्छिता चेत् "आचेलक्को धम्मो पुरिमचरिमाणं" इति वचो मिथ्या भवेत् ।" तथा नवस्थाने यदुक्तं "यथाहमचेली तथा होउ पच्छिमो इदि होक्सवित्ति" तेनापि बिरोधः । किं च जिनानामितरेषां वस्त्रत्यागकाल: वीरजिनस्येव किं न निर्दिश्यते, यदि वस्त्रं तेषामपि भवेत् । एवं तु युक्त वक्तु 'सर्वत्यागं कृत्वा स्थिते जिने केनचिदसं' वस्त्रं निक्षिप्तं उपसःर्गस इति । -भगवती आराधना, विजयोदयाटीका पृ० ३२५-२६ ।
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