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यापनीय साहित्य : १३९ खित है। स्वयं ग्रन्थकार ने भी इसे मरणविभक्ति कहा है। इससे यह सिद्ध होता है कि मूलाचार द्वारा निर्दिष्ट मरणविभक्ति श्वेताम्बर परम्परा में उपलब्ध मरणविभक्ति ही है। दिगम्बर परम्परा में मरणविभक्ति नाम का कोई ग्रन्थ रहा हो, ऐसा उल्लेख मुझे देखने को नहीं मिला है। यद्यपि मूलाचार में उल्लेखित मरणविभक्ति वर्तमान मरणविभक्ति के एक भाग मात्र थी-क्योंकि वर्तमान मरणविभक्ति में उसके सहित आठ प्राचीन ग्रन्थों का संकलन है। प्राचीन 'मरणविभक्ति' एक संक्षिप्त ग्रन्थ था।
जिस चौथे ग्रन्थ का उल्लेख मूलाचार में मिलता है, वह संग्रह है। संग्रह से ग्रन्थकार का क्या तात्पर्य है, यह विचारणीय है। पंच-संग्रह के नाम से कर्मसाहित्य सम्बन्धी ग्रन्थ श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त दिगम्बर परम्परा में पंचास्तिकाय को भी 'पंचत्थिकाय-संगहसुत्त' कहा गया है। स्वयं इस ग्रन्थ के कर्ता ने भी इस ग्रंथ को संग्रह कहा है अतः एक विकल्प तो यह हो सकता है कि संग्रह से तात्पर्य 'पंचत्थिकाय संग्रह' से हो-किन्तु यही एकमात्र विकल्प हो-हम ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि अनेक आधारों पर मूलाचार पंचस्तिकाय की अपेक्षा प्राचीन है। दूसरे यदि मूलाचार को कुन्दकुन्द के ग्रंथों का उल्लेख इष्ट होता तो वे समयसार का भी उल्लेख करते हैं । पुनः कुन्दकुन्द द्वारा 'समय' शब्द का जिस अर्थ में प्रयोग किया है-मूलाचार के समयसाराधिकार में 'समय' शब्द उससे भिन्न अर्थ में ग्रहण हुआ है । श्वेताम्बर परम्परा में संग्रहणी सूत्र का उल्लेख उपलब्ध होता है । पंचकल्प महाभाष्य के अनुसार संग्रहणियों की रचना आचार्य कालक ने की थी। पाक्षिकसूत्र में नियुक्ति और संग्रहणी दोनों का उल्लेख है । संग्रहणी आगमिक ग्रंथों का संक्षेप में परिचय देने वाली रचना है। चंकि आगमों का अस्वाध्याय काल में पढ़ना वजित था, अतः यह हो सकता है कि आचार्य कालक आदि की जो संग्रहणी थी, उन्हीं से ग्रन्थकार का तात्पर्य रहा हो । संग्रह से 'पंचसंग्रह' का अर्थ ग्रहण करने पर कुछ समस्याएँ उठ खड़ी होती हैं । श्वेताम्बर पंचसंग्रह जो चन्द्रऋषि की रचना मानी जाती है वह किसी भी स्थिति में ७वीं शताब्दी से पूर्व की नहीं है। दिगम्बर परम्परा का पंचसंग्रह तो और भी परवर्ती ही सिद्ध होता है। उसमें उपलब्ध धवला आदि का कुछ अंश उसे १०वीं-११वीं शती तक ले जाता है। अतः मूलाचार में संग्रह के रूप में जिस ग्रन्थ का
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