________________
१४८: जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
सम्भव है कि शाकटायन पाल्यकीर्ति ने जिस इन्द्रगुरु का उल्लेख किया है वे ही इस गाथा में उल्लिखित इन्द्रनन्दि गुरु हों. जिनसे कनकनन्दि ने अध्ययन किया था। साथ ही यह भी सम्भव है कि ये इन्द्रनन्दि, प्राचीन इन्द्रनन्दि-संहिता के कर्ता इन्द्रनन्दि और छेदपिण्डशास्त्र के कर्ता इन्द्रनन्दि एक ही व्यक्ति हों।
इन्द्रनन्दि नामक उपरोक्त आचार्यों के अतिरिक्त श्रुतावतार के कर्ता इन्द्रनन्दि और नीतिसार के कर्ता इन्द्रनन्दि के उल्लेख मिलते हैं । श्रुतावतार कर्ता इन्द्रनन्दि छेदपिण्ड के कर्ता नहीं हो सकते क्योंकि व्यवहार कल्प और जीत-कल्प जैसे श्वेताम्बर आगमों को प्रमाण मानने वाले यापनीयों को वे जैनाभास कहते हैं । नीतिसार के कर्ता इन्द्रनन्दि भी छेदपिण्ड के कर्ता नहीं हो सकते, क्योंकि वे उन इन्द्रनन्दि से भिन्न हैं, जो प्राचीन इन्द्रनन्दि संहिता के कर्ता हैं और शाकटायन तथा गोम्मटसार के कर्ता नेमिचन्द्र द्वारा इन्द्रगुरु के रूप में उल्लिखित हैं, क्योंकि नीतिसार के कर्ता इन्द्रनन्दि तो स्वयं ही नीतिसार के ७०वें श्लोक में नेमिचन्द्र और प्रभाचन्द्र का उल्लेख करते हैं.।' इस प्रकार ये भी एक परवर्ती आचार्य ही सिद्ध होते हैं और इन्हें भी छेदपिण्ड का कर्ता मानना सम्भव नहीं है, यद्यपि पं० नाथूराम जी प्रेमी ने इन्हें छेदपिण्ड के कर्ता होने की सम्भावना प्रकट की है। किन्तु छेदपिण्ड किसी भी स्थिति में दसवीं शतो से पूर्व का है।
मेरी दृष्टि में छेदपिण्ड के कर्ता इन्द्रनन्दि गोम्मटसार के कर्ता नेमिचन्द्र से पूर्ववर्ती हैं। नेमिचन्द्र ने स्वयं गोम्मटसार के कर्मकाण्ड में इन्हें प्रणाम भी किया है और उन्हें सकल श्रुतसागर का पारगामी माना है। इन्हीं इन्द्रनन्दि से कनकनन्दि ने कर्मशास्त्र का अध्ययन करके सत्व स्थान का विवेचन किया था। उसी सत्त्व स्थान के आधार पर नेमिचन्द्र
१. प्रभाचन्द्रोनेमिचन्द्र इत्यादिमुनिसत्तमैः ।
-नीतिसार ७०। २. णमिऊण अभयनंदि सुदसागर पारगिंदणंदि गुरु । वीरवीरणंदिणाहं पयडीणं पच्चयं वोच्छं ।
-गोम्मटसार कर्मकाण्ड गा० ७८५ । ३. वर इंदणंदि गुरुणो पासे सोऊण सयल सिद्धतं । सिरिकणयणंदि गुरुणा सत्तठाणं समुट्ठि॥
-गोम्मटसार कर्मकाण्ड ३९५ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org