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यापनीय साहित्य : १५१ क्षुल्लक शब्द भी इसी का वाचक है । क्षुल्लक या देशयति को श्रावक कहना मात्र आग्रह बुद्धि का परिचायक है ।
( ३ ) यह स्पष्ट है कि यापनीय संघ और उससे विकसित काष्ठासंघ, स्त्री की पुनः दीक्षा और रात्रि भोजन को छठें व्रत के रूप में स्वीकार करते थे । श्वेताम्बर परम्परा में दशवेकालिक आदि में छठें व्रत के रूप में ही रात्रि भोजन का निषेध किया गया है । प्रस्तुत ग्रन्थ में भी रात्रि भोजन निषेध का छठें व्रत के रूप में उल्लेख है । इसमें कहा गया है कि जो रात्रि में भिक्षाचार्या के लिए प्रवेश करता है उसे और उसके सम्भोगी को मूलप्रायश्चित्त देना चाहिए। इसी प्रकार ग्रन्थ की गाथा ३०७ और ३४२ में भी श्रावक के प्रायश्चित्तों के सन्दर्भ में रात्रि भोजन- निषेध को छठाँ अणुव्रत कहा गया है' । रात्रि भोजन-निषेध को छठा व्रत मानना यह यापनियों और श्वेताम्बरों की मान्यता है, दिगम्बर परम्परा की नहीं । दिगम्बर परम्परा उसका अन्तर्भाव अहिंसाव्रत में करती है ।
( ४ ) प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रायश्चित्त की चर्चा करते हुए छेदपिण्डप्रायश्चित्त की गाथा १७४ और मूलाचार ( ज्ञानमती द्वारा सम्पादित ) की गाथा ३६२ में विचारगत ही नहीं शब्दगत समानता भी है । ये दोनों ही ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परा के पारांञ्चिक प्रायश्चित्त के स्थान पर श्रद्धान का उल्लेख करते हैं । इस प्रकार छेदपिण्ड और मूलाचार दोनों की परम्परा समान प्रतीत होती है । तत्त्वार्थं का अनुसरण करनेवाली मूलसंघीय दिगम्बर परम्परा में नो प्रायश्चित्तों का ही उल्लेख पाया जाता है उनमें पाराञ्चिक का उल्लेख नहीं है । यद्यपि यह भी स्मरण रखना चाहिए कि तत्वार्थं की परम्परा में मूल के स्थान पर उपस्थापन शब्द का प्रयोग हुआ है । चूंकि मूलाचार यापनीय परम्परा का ग्रन्थ है, यह सिद्ध ही है, अतः इसके आधार पर यह अनुमान किया जा सकता है कि यह छेदपिण्ड - प्रायश्चित्त ग्रन्थ भी यापनीय परम्परा का रहा होगा ।
(५) छेदपिण्ड में अनेक स्थलों पर कल्प और व्यवहार का निर्देश दिया गया है | गाथा २०८ में कहा गया है कि जो श्रमण विकृति, तृण,
१. ( अ ) छट्ठ अणुब्वयधादे गुणवय सिक्खावय तु उववासो ।
(ब) छठमणुव्वयधादे गुणवयसिक्यावर हि उववासो ।
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—छेदपिण्डम्, ३०७ ।
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- छेदपिण्डम् ३४२ ॥
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