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यापनीय साहित्य : ११३ के कर्ता उमास्वाति माने अथवा उमास्वाति का काल कम से कम ईसा की प्रथम शताब्दी माने, तब ही कसायपाहुड के कर्ता और प्रस्तोता के रूप में गुणधर, आर्यमा और आर्य नागहस्ति को स्वीकार किया जा सकता है, तथापि यतिवृषभ को आर्यमंक्षु और आर्य नागहस्ति का साक्षात् शिष्य और अन्तेवासी मानना सम्भव नहीं है। वे उनके परम्परा शिष्य ही हैं। वर्तमान में कसायपाहुडसूत्त में चूलिका और भाष्य भी उपलब्ध होते हैं। संक्षिप्त भाष्यों की रचनाएं नियुक्तियों के बाद और बृहद्कल्पभाष्य, व्यवहारभाष्य और विशेषावश्यकभाष्य जैसे विस्तृत भाष्य ग्रन्थों की रचना के पहले होने लगी थी। इनका काल लगभग ईसा की पांचवीं शताब्दी मानना होगा । कसायपाहुड की भाष्य गाथाएं भी इसी काल की होंगी और छठी-सातवीं शताब्दी में उस पर यह चूणि लिखी गई होगी।
जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण में अपने विशेषावश्यक भाष्य में आदेशकषाय के स्वरूप की चर्चा करते हुए 'केचित्' कहकर उसके यतिवृषभके चूर्णिसूत्र में निर्दिष्ट स्वरूप का उल्लेख किया है और यह बताया है कि वह स्थापनाकषाय से भिन्न नहीं है, उसी में उसका अन्तर्भाव हो जाता है इस आधार पर पं० नाथूराम प्रेमी के अनुसार यतिवृषभ वि० सं० ६६६ के पूर्व हुए यह निश्चित होता है, यह उनकी उत्तरसीमा है । यतिवृषभ वि० सं० ५१५ के पूर्व भी नहीं हुए हैं क्योंकि यतिवृषभ के द्वारा सर्वनन्दी के लोकविभाग का तिलोयपण्णत्ति में पांच बार उल्लेख हुआ है और सर्वनन्दी का लोकविभाग वि० सं० ५१५ (ई० सं० ४५८) की रचना है। इसी प्रकार तिलोयपण्णत्ति में वीरनिर्वाण के १००० वर्ष बाद तक की राज्यपरम्परा का उल्लेख है । तिलोयपण्णत्ति के अनुसार वी० नि० के १००० वर्ष बाद कल्की की मृत्यु हुई और उसके बाद उसके पुत्र ने दो वर्ष तक धर्मराज्य किया। अतः तिलोयपण्णत्ति वी० नि० सं० १००२ तदनुसार वि० सं० ५३२ अर्थात् ई० सन् ४७५ के बाद ही कभी रची गयी है । अतः यह मानने में कोई बाधा नहीं आती है कि यतिवृषभ वि० सं० ५३५ से वि० सं० ६६६ के बीच हुए हैं और इस आधार पर उनके चूर्णिसूत्रों का रचनाकाल ईसा की छठी-सातवीं शताब्दी ही सिद्ध होता है। पुनः तिलोयपण्णत्ति के अन्त में पाई जानेवाली 'चुण्णिसरूवट्ठ' इत्यादि गाथा के
१. जैन साहित्य और इतिहास (पं० नाथूरामजी प्रेमी) पृ० १० २. वही, पृ० १०
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