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यापनीय साहित्य : ११६ जाता है, जो इस तथ्य का प्रमाण है कि इनकी गाथाएँ अर्धमागधो स्रोतों से आयी है।
यह स्पष्ट है कि प्राचीन स्तर के जो ग्रन्थ अपनी विषय-वस्तु एवं शैली की दृष्टि से अर्धगागधी आगमों और आगमिक व्याख्याओं के निकट हैं और जो शौरसेनी प्राकृत में रूपान्तरित या रचित हैं, वे निश्चित रूप से यापनीय हैं और इस दृष्टि से विचार करने पर हम स्पष्टतया इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि कसायपाहुडचूणि यापनीय परम्परा का हो ग्रथ है और इसके लेखक यतिवृषभ भी यापनोय हैं ।
जहाँ तक यतिवृषभ और उनके कसायपाहुडचूर्णिसूत्रों के रचनाकाल का प्रश्न है, जयधवला के अनुसार यतिवृषभ आर्य मंक्षु के शिष्य और आर्य नागहस्ति के अन्तेवासी थे और उन्होंने उन्हीं से कसायपाहुड का अध्ययन कर चूर्णिसूत्रों की रचना की थी किन्तु इस कथन की विश्वस. नीयता संदेहास्पद है।
अभिलेखीय और अन्य साक्ष्यों के आधार पर आयं मंक्ष और नागहस्ती का काल ईस्वी सन् की दूसरी शती सिद्ध है । प्रथम तो चूणि लिखने की परम्परा जैनों के अतिरिक्त अन्यत्र प्राप्त नहीं होती है। पुनः जैन परम्परा में भी चूर्णिया मात्र छठी-सातवीं शताब्दी से लिखी जाने लगी हैं और वह भी मात्र श्वेताम्बर और यापनोय परम्पराओं में हो। मूलसंघीय दिगम्बर परम्परा में कोई चूणि नहीं लिखो गई है। पुनः यापनोय परम्परा में भी कसायपाहुड के अतिरिक्त अन्य किसी ग्रन्थ पर चूर्णि लिखी गई हो इसके संकेत प्राप्त नहीं होते। जबकि श्वेताम्बर परम्परा में कर्म साहित्य और आगमिक साहित्य पर लगभग २२ से अधिक चणियाँ लिखी गई हैं । कसायपाहुडचूर्णि की श्वेताम्बर परम्परा की कम्मपयडीचूर्णि, सतकचूर्णि और सित्तरीचूर्णि से शैलीगत निकटता भी यही सूचित करती है कि कसायपाहुडचूर्णि का रचनाकाल भी लगभग छठी-सातवीं शती होगा और इसी आधार पर यतिवृषभ का काल भी यही मानना होगा । अधिकांश दिगम्बर और श्वेताम्बर विद्वानों ने उनका यही काल माना भी है । बाधा यही है कि इससे वे कल्पसूत्र एवं नन्दीसूत्र की स्थविरावलियों में उल्लिखित आयमंक्षु एवं नागहस्ति के शिष्य और अन्तेवासी न होकर परम्परा-शिष्य ही सिद्ध होंगे। क्योंकि इन्होंने आर्य मंक्षु और नागहस्ति के मतों का उल्लेख किया है और आर्य मंक्षु का उपदेश विच्छिन्न और नागहस्ति के उपदेश को अविच्छिन्न माना है, इसी आधार पर धवलाकार ने इन्हें उनका शिष्य मान लिया है।
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