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यापनीय साहित्य : १२९ तीसरीगाथा को विजयोदया टीका-'अनुयोगद्वारादीनां बहूनामुपन्यासमकृत्वा दिङ्मात्रोपन्यासः' आदि में अनुयोगद्वारसूत्र का उल्लेख किया है।
भगवती आराधना में ( गाथा ११६ पृ० २७७ ) 'पंचवदाणि जदीणं' आदि आवश्यक सूत्र की गाथा उद्धृत की है। ___ ४९९ वीं गाथा की विजयोदया में "अंगबाह्य वा बहुविधविभत्ते सामायिकं चतुर्विंशतीस्तवो, वंदना, प्रतिक्रमणं, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवेकालिक, उत्तराध्ययनं, कल्पव्यवहारः कल्पं महाकल्पं, पुण्डरीकं महापुण्डरीक इत्यादिनां विचित्रभेदेन विभक्तो।" ११२३ वीं गाथा की टीका"तथा चोक्तं कल्पे-हरित तणो सहिगुच्छा" आदि ।
इन सब बातों से सिद्ध है कि शिवायं भी यापनीय संघ के हैं। इस तरह की और भी अनेक बातें मूल ग्रन्थ में हैं जो दिगम्बर सम्प्रदाय के साथ मेल नहीं खाती।"
भगवती आराधना के यापनीय परम्परा का ग्रन्थ होने के सम्बन्ध में दिगम्बर परम्परा के मूर्धन्य विद्वान् पं० नाथुरामजी प्रेमी के उपर्युक्त आधारों के अतिरिक्त एक अन्य महत्वपूर्ण आधार यह भी है कि उसमें श्वेताम्बर परम्परा में मान्य प्रकीर्णकों से अनेक गाथायें हैं। पं० कैलाश चन्द्र जी ने भगवती आराधना की अपनी भूमिका में इसका उल्लेख किया है। जिन प्रकीर्णकों की गाथायें भगवती आराधना में मिलती हैं उनमें आउरपच्चक्खाण, भत्तपरिण्णय संथारग, मरण समाही प्रमुख हैं । यद्यपि पण्डितजी गाथाओं की इस समानता को तो सूचित करते हैं-फिर भी वे स्पष्ट रूप से यह नहीं कहते हैं कि इन ग्रन्थों से ये गाथायें ली गई हैं। वस्तुतः इन गाथाओं के आदान-प्रदान के सम्बन्ध में तीन विकल्प हो सकते हैं । या तो ये गाथायें भगवती आराधना से इन ग्रन्थों में गई हों या फिर भगवती आराधनाकार ने इन ग्रन्थों से ये गाथायें ली हों अथवा ये गाथायें दोनों की एक ही पूर्व परम्परा से चली आ रही हों, जिन्हें दोनों ने लिया हो। इसमें प्रथम विकल्प है कि भगवती आराधना से इन ग्रन्थकारों ने ये गाथायें ली हों, यह इसलिये सम्भव नहीं है कि ये ग्रन्थ भगवती आराधना की अपेक्षा प्राचीन हैं। नन्दो, मूलाचार आदि में इनमें से कुछ ग्रन्थों के उल्लेख मिलते हैं-पुनः इन ग्रन्थों में गुणस्थान जैसे विकसित
१. भगवती आराधना (पं० कैलाशचंद जी), भूमिका पृ०
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