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१३० : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय सिद्धान्त का भी निर्देश नहीं है। जबकि भगवती आराधना में वह सिद्धांत उपस्थित है। तीसरे यह स्पष्ट है कि ये ग्रन्थ आकार में लघु हैं जबकि आराधना एक विशालकाय ग्रन्थ है। यह सुनिश्चित है कि प्राचीन स्तर के ग्रन्थ प्रायः आकार में लघु होते हैं, क्योंकि उन्हें मौखिक रूप से याद रखना होता था, अतः वे आराधना की अपेक्षा पूर्ववर्ती हैं।
भगवती आराधना में विजहना (मृतक के शरीर को जंगल में रख देने) की जो चर्चा है वह प्रकीर्णकों में तो नहीं है किन्तु भाष्य और चूर्णि में है। अतः प्रस्तुत आराधना भाष्य चूर्णियों के काल की रचना रही होगी। अतः यह प्रश्न तो उठता ही नहीं है कि गाथायें आराधना से इन प्रकीर्णकों में गई हैं।
यदि हम यह स्वीकार न भी करें कि ये गाथायें श्वेताम्बर साहित्य से आराधना में ली गई हैं तो यह तो मानना ही होगा कि दोनों की कोई सामान्य पर्व परम्परा थी, जहाँ से दोनों ने ये गाथायें ली हैं और सामान्य पूर्व परम्परा श्वेताम्बर और यापनीय (बोटिक) की थी, क्योंकि दोनों आगम, प्रकीर्णक और नियुक्ति साहित्य के समान रूप से उत्तराधिकारी रहे हैं। अतः भगवती आराधना में आउरपच्चक्खाण, भत्तपरिणा, संथारग, मरणसमाहि एवं नियुक्ति आदि की अनेकों गाथाओं को उपस्थिति यह सिद्ध करती है कि वह यापनीय परम्परा का ग्रन्थ है। यह बात तो अनेक दिगम्बर विद्वान् भी मान रहे हैं कि मूलाचार और आराधना में अनेकों गाथायें समान हैं और मूलाचार में गाथायें आउरपच्चक्खाण, महापच्चक्खाण, नियुक्ति आदि श्वेताम्बर परम्परा में मान्य ग्रन्थों से ही उद्धृत हैं। मूलाचार और उसकी परम्परा
मूलाचार को वर्तमान दिगम्बर जैन परम्परा में आगम स्थानीय ग्रन्थ के रूप में मान्य किया जाता है। यह ग्रन्थ मुख्यतः अचेल परम्परा के साधु-साध्वियों के आचार से सम्बन्धित है। यह भी निर्विवाद सत्य है कि दिगम्बर परम्परा में इस ग्रन्थ का उतना ही महत्व है जितना कि श्वेताम्बर परम्परा में आचारांग का । यही कारण है कि धवला और जयधवला ( दशवीं शताब्दी ) में इसकी गाथाओं को आचारांग को गाथा कहकर उद्धृत किया गया है। यह स्पष्ट है कि दिगम्बर परम्परा में जब आचारांग को लुप्त मान लिया गया तो उसके स्थान पर मूलाचार को ही आचारांग के रूप में देखा जाने लगा। वस्तुतः आचारांग के प्राचीनतम
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