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१३४ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
७-आवश्यकनियुक्ति की लगभग ८० गाथायें मूलाचार में मिलती हैं और मूलाचार में प्रत्येक आवश्यक का कथन करते समय बट्टकेरि का यह कहना कि मैं प्रस्तुत आवश्यक पर समास से-संक्षेप से-नियुक्ति कहूँगा', अवश्य ही अर्थसूचक है। क्योंकि सम्पूर्ण मूलाचार में 'षडावश्यक अधिकार' को छोड़कर अन्य प्रकरणों में नियुक्ति' शब्द शायद ही कहीं आया हो । षडावश्यक के अन्त में भी इस अध्याय को 'नियुक्ति' नाम से ही निर्दिष्ट किया गया है।
८-मूलाचार में मुनियों के लिए 'विरत' और आर्यिकाओं के लिए 'विरतो' शब्द का उपयोग किया गया है । (गाथा १८०) । मुनि-आर्यिका, श्रावक-श्राविका मिलकर चर्विध संघ होता है। चौथे समाचार अधिकार में (गाथा १८७) कहा है कि अभी तक कहा हुआ यह यथाख्यातपूर्व समाचार आर्यिकाओं के लिए भी यथायोग्य जानना। इसका अर्थ यह हुआ कि ग्रन्थकर्ता मुनियों और आर्यिकाओं को एक ही श्रेणी में रखते हैं (जब कि आ० कुन्दकुन्द स्त्री प्रवज्या निषेध करते हैं ।५) फिर १६६वीं गाथा में कहा है कि इस प्रकार की चर्या जो मुनि और आर्यिकायें करती हैं वे जगत्पूजा, कोर्ति और सुख प्राप्त करके 'सिद्ध' होती हैं । १८४वीं गाथा में कहा है कि आर्यिकाओं का गणधर गम्भीर दुर्धर्ष अल्पकौतूहल, चिरप्रवजित और गृहीतार्थ होना चाहिए। इससे जान पड़ता है कि आर्यिका मुनि संघ के ही अन्तर्गत हैं और उनका गणधर मुनि ही होता है। 'गणधरो मर्यादोपदेशकः प्रतिक्रमणाद्याचार्यः' (टीका)।
इन सब बातों से मूलाचार कुन्दकुन्द परम्परा का ग्रन्थ नहीं मालूम
१. देखिए, पं० सुखलाल संधवीकृत 'पंचप्रतिक्रमणसूत्र'। २. 'आवासयणिज्जुत्ती वोच्छामि जहाकम समासेणा।' 'समाडयणिज्जुत्ती
एसा कहिया मए समासेण ।' 'चउवीसयणिज्जुत्ती एसा कहिया मए समासेण'
आदि । १. आवासयणिज्जुत्ती एवं कधिदा समासओ विहिणा। ४. एसो अज्जाणंपि अ समाचारो जहाक्खिओ पुन्वं ।
सम्वम्हि अहोरत्ते विभासिदन्वो जधाजोग्गं ।। १८७ ५. देखिए, कुन्दकुन्द अमृतसंग्रह, गा० २४-२७, पृ० सं० १३५
सं० पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री-१३६. ६. एवं विधाणचरिय चरति जे साधवो य अज्जाओ।
जगपुज्जं ते कित्ति सुहं च लभ्रूण सिझंति ।।-मूलाचार
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