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- १२४ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
उनके तर्कों को उनके ही शब्दों में यथावत रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं । वे लिखते हैं कि
अपराजित के विषय में विचार करते समय मूल भगवती आराधना में भी कुछ बातें ऐसी मिली हैं जिनसे उसके कर्ता शिवार्य भी यापनीय संघ के मालूम होते हैं । देखिए -
१. इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में लिखा है कि आर्य जिननन्दि गणि, आयं सर्वगुप्त गणि और आर्य मित्रनन्दि गणि के चरणों में अच्छी तरह सूत्र और उनका अर्थ समझकर और पूर्वाचार्यों की रचना को उपजीव्य बनाकर 'पाणितलभोजी' शिवायं ने यह आराधना रची।' हम लोगों के लिए प्रायः ये सभी नाम अपरिचित हैं । अपराजित की परम्परा के समान यह परम्परा भी दिगम्बर सम्प्रदाय को किसी पट्टावली या गुर्वावली में नहीं मिलती । इस धारणा के सही होने का भी कोई पुष्ट और निर्भ्रान्त प्रमाण अभी तक नहीं मिला कि वे शिवकोटि और शिवार्य एक ही हैं, जो समन्तभद्र के शिष्य थे। जो कुछ प्रमाण इस सम्बन्ध में दिये जाते हैं, वे बहुत पीछे के गढ़े हुए मालूम होते हैं । 3 और तो और, स्वयं शिवार्य ही यह स्वीकार नहीं करते कि मैं समन्तभद्र का शिष्य हूँ ।
२. अपराजितसूरि यदि यापनीय संघ के थे तो अधिक संभव यही है कि उन्होंने अपने ही सम्प्रदाय के ग्रन्थ की टीका की है।
३. आराधना की गाथायें काफी तादाद में श्वेताम्बर सूत्रों में मिलती हैं, इससे शिवार्य के इस कथन की पुष्टि होती है कि पूर्वाचार्यों की रची
१. अज्जजिणणंदिगणिअज्जमित्त गंदीणं ।
अवगमियपायमूले सम्मं सुतं च अत्थं च ॥ २१६१ पुव्वायरियणिवद्धा उपजीवित्ता इमा ससत्तीए । आराहणा सिवज्जेण पाणिदलभोइणा रइदा ॥ २१६२
२. आपनीय संघ के मुनियों में कीर्तिनामान्त अधिकता से है - जैसे पाल्यकीर्ति, रविकीर्ति, विजयकीर्ति, धर्मकीर्ति, आदि । नन्दि, गुप्त, चन्द्र, नामान्त भी काफी हैं जैसे- जिननन्दि, मित्रनन्दि, सर्वगुप्त, नागचन्द्र, नेमिचन्द्र ।
३. देखो आगे के पृष्ठों में 'आराधना और उसकी टीकायें' ।
४. अनन्तकीर्ति - ग्रन्थमाला में प्रकाशित 'भगवती आराधना वचनिका' के अन्त में उन गाथाओं की एक सूची दी है जो मूलाचार और आराधना में एकसी हैं और पं० सुखलालजीद्वारा सम्पादित 'पंच प्रतिक्रमण सूत्र' में मूलाचार की सूची दी है जो भद्रबाहुकृत 'आवश्यकनियुक्ति' में भी हैं ।
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