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१२६ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
हो गया और उन्होंने केवल ज्ञान प्राप्त किया । हरिषेणकृत कथाकोश -में मेतार्य मुनि की कथा है, परन्तु उसमें श्वेताम्बर कथा से बहुत भिन्नता है ।
गाथा ६ की विजयोदया टीका में लिखा है - " संस्कारिताभ्यन्तरतसाइति वा असम्बद्धं । अन्तरेणापि बाह्यतपोऽनुष्ठानं अन्तर्मुहूर्तमात्रे-णाधिगत रत्नत्रयाणां भद्दणराजप्रभृतीनां पुरुदेवस्य भगवतः शिष्याणां निर्वाणगमनमागमे प्रतीतमेव ।' यह भद्दणराज आदि की अन्तर्मुहूर्त में निर्वाण प्राप्ति की कथा भी दिगम्बर साहित्य में अज्ञात है । इसी तरह गाथा १७ की टीका में भी हैं - भद्दणादयो राजपुत्रास्तस्मिन्नेव भवे त्रसतामापन्नाः अतएवानादिमिथ्यादृष्टयः प्रथम जिनपादमूले श्रुतधर्मं साराः समारोपित रत्नत्रयाः ।
७. दश स्थितिकल्पों के नामवाली गाथा जिसकी टीका पर अपराजित को यापनीय सिद्ध किया गया है, जीतकल्प- भाष्य की १९७२ नं० की गाथा है । श्वेताम्बर सम्प्रदाय की अन्य टीकाओं और नियुक्तियों में भी यह मिलती है और प्रभाचन्द्र ने अपने प्रमेयकमलमार्तण्ड के स्त्री-मुक्तिविचार ( नया एडीशन पृ० १३१) प्रकरण में इसका उल्लेख श्वेताम्बर सिद्धान्त के रूप में ही किया है"नाचाक्यं नेष्यते ( आप 'रायपिंड किकिम्मे' इत्यादेः पुरुषं तदुपदेशात् ।"
ईष्यतेव ) 'आचेलक्कुद्दे सिय- सेज्जाहरप्रति दशविधस्य स्थितिकल्पस्य मध्ये
आराधना की ६६२ और ६६३ नवम्बर की गाथायें भी दिगम्बर सम्प्रदाय के साथ मेल नहीं खाती हैं । उनका अभिप्राय यह है कि लब्धियुक्त और मायाचाररहित चार मुनि ग्लानिरहित होकर क्षपक के योग्य निर्दोष भोजन और पानक ( पेय ) लावें । इस पर पं० सदासुखजी ने आपत्ति की है और लिखा है कि "यह भोजन लाने की बात प्रमाण रूप नाहीं । ” इसी तरह 'सेज्जागासणिसेज्जा' आदि गाथा पर ( जो मूलाचार में भी
१. चत्तारिजणा भत्तं उवकप्पंति अगिलाए पाओग्गं । छडियमवगददोसं अमाइणो लद्धिसंपण्णा ।। ६६२ ॥ चत्तारिजणा पाणयमुवकप्पंति अगिलाए पाओग्गं । छंडियमवगददो सं अमाइणो लद्धिसंपण्णा ।। ६६३॥
२. सेज्जगासणिसेज्जा उवहीपडिलेहणा उवग्महिदे |
आहारोसयवायणविकिंचणुव्वत्तणादीसु
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