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यापनीय साहित्य : १२३
मुक्ति या स्त्री मुक्ति के समर्थक अर्थात् यापनीय होने में सन्देह प्रकट करते हैं । वे लिखते हैं कि हमें वे ( अपराजितसूरि ) सवस्त्र मुक्ति या स्त्रो मुक्ति के समर्थक प्रतीत नहीं हुए । सम्भवतः पंडित जी इस ऐतिहासिक तथ्य पर ध्यान नहीं दे पाये कि स्त्री मुक्ति और केवली मुक्ति के प्रश्न ही ६-७वीं सदी के पूर्व किसी भी श्वेताम्बर - दिगम्बर ग्रन्थ में चर्चित नहीं-हैं । दिगम्बर परम्परा में सर्वप्रथम कुन्दकुन्द ने सुत्तपाहुड में स्त्री मुक्ति का निषेध किया है, किन्तु विद्वानों ने प्रथम तो सुत्तपाहुड के कुन्दकुन्दकृत होने में ही सन्देह प्रकट किया दूसरे वे कुन्दकुन्द को छठी शती पूर्व का नहीं मानते हैं । यापनीय मान्यताओं की चर्चा करते हुए अग्रिम अध्याय में हमने इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा की है ।
अतः भगवती आराधना में स्त्री मुक्ति और केवली भुक्ति का उल्लेख न देखकर उसे एक तीसरी परम्परा का ग्रन्थ कहते हुए भी उसे यापनीय परम्परा का नहीं मानना, आदरणीय पंडित जी के साम्प्रदायिक अभि-निवेश का ही सूचक है । जब मूलग्रन्थ में यह चर्चा ही नहीं थी तो टीका-कार अपराजित ने भी उसे नहीं उठाया, किन्तु इससे वे स्त्री मुक्ति के विरोधी नहीं कहे जा सकते हैं । यापनीयों के अतिरिक्त ऐसा कोई भी जैन-सम्प्रदाय नहीं था, जो अचेलता का समर्थक होते हुए भी आगमों को मान्य कर रहा था । यदि स्त्री मुक्ति और केवली भुक्ति का स्पष्ट समर्थन या निषेध ही उस ग्रन्थ के किसी सम्प्रदाय विशेष से सम्बन्धित होने का आधार हो तो फिर अनेक ग्रन्थ जिन्हें आज दिगम्बर परम्परा अपना ग्रन्थ मान रही है, उन्हें दिगम्बर परम्परा का ग्रन्थ नहीं मानना होगा । कुन्दकुन्द के ही समयसार, नियमसार पंचास्तिकाय में स्त्री-मुक्ति और केवल भुक्ति का खण्डन नहीं मिलता है। क्या इसके अभाव में इनके दिगम्बर आचार्य द्वारा रचित होने में कोई संदेह किया जाना चाहिए ?
श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय परम्परा के प्राचीन अनेक ग्रन्थ ऐसे हैं जिनमें इन दोनों अवधारणाओं के समर्थन या निषेध के सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा गया है । मात्र स्त्री-मुक्ति और केवली - भुक्ति की समर्थक गाथाओं के अभाव के कारण उसे यापनीय मानने से इन्कार नहीं किया जा सकता । पंडित नाथूराम प्रेमी ने अपने लेख 'यापनीयों का साहित्य * में स्पष्ट रूप से यह स्वीकार करते हैं कि भगवती आराधना के कर्ताशिवायं और टीकाकार अपराजित सूरि यापनीय थे । इस सम्बन्ध में हम
१. वही, पृ० ३० ।
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