________________
११२ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय ___ यतिवृषभ से आयं मंक्षु और नागहस्ति के शिष्य मानने का आधार यतिवृषभ द्वारा मंक्षु और नागहस्ति के मतों का क्रमशः अपव्वाइजंत और पव्वाइजंत के रूप में उल्लेख करना है। पं० हीरालाल जी ने जयधवला के आधार पर इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है, "जो उपदेश सर्व आचार्यों से सम्मत है, चिरकाल से अविच्छिन्न सम्प्रदाय द्वारा प्रवाहरूप से आ रहा है, और गुरु-शिष्य परम्परा के द्वारा प्ररूपित किया जाता है, वह प्रवाह्यमान (पव्वाइजंत) उपदेश कहलाता है। इससे भिन्न जो सर्व आचार्यसम्मत न हो और अविछिन्न गुरु-शिष्य-परम्परा से नहीं आ रहा हो, ऐसे उपदेश को अप्रवाह्यमान (अपव्वाइजंत) उपदेश कहते हैं। आर्यमंक्षु आचार्य के उपदेश को अप्रवाह्यमान और नागहस्ति क्षमाश्रमण के उपदेश को प्रवाह्यमान उपदेश समझना चाहिए ।' पं० होरालालजी का कथन है कि वह (कम्मपयडी) आ० यतिवृषभ के सामने उपस्थित ही नहीं थी बल्कि उन्होंने प्रस्तुत चूर्णि में उसका भरपूर उपयोग भी किया है। कम्मपयडी को शिवशर्मसूरि की रचना माना जाता है-इनका काल ५वीं शती है । अतः सम्भव यही है कि यतिवृषभ का काल इनके पश्चात् अर्थात् ईसा की छठी-सातवीं शती हो । गुणस्थान सिद्धांत के विकास की दष्टि से यह मानना होगा कि आर्य मंा और नागहस्ति कर्म प्रकृतियों के विशिष्ट ज्ञाता थे, वे कसायपाहुड के वर्तमान स्वरूप के प्रस्तोता नहीं थे, मात्र यही माना जा सकता है कि कसायपाहुड को रचना का आधार उनकी कर्म सिद्धान्त सम्बन्धी अवधारणाएँ है क्योंकि आर्य मंक्षु और नागहस्ति का काल ई० सन् की दूसरी शताब्दी का है। यदि हम कसायपाहड में प्रस्तुत गुणस्थान की अवधारणा पर विचार करें तो ऐसा लगता है कि कसायपाहुड की रचना गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा के निर्धारित होने के बाद हुई है। अर्धमागधी आगम साहित्य में यहाँ तक कि प्रज्ञापना जैसे विकसित आगम और तत्त्वार्थसत्र में भी गुणस्थान का सिद्धांत सुव्यवस्थित रूप नहीं ले पाया था, जबकि कसायपाहुड में गुणस्थान-सिद्धांत सव्यवस्थित रूप लेने के बाद ही रचा गया है । अतः यदि तत्त्वार्थ का रचनाकाल ईसा की दूसरी-तीसरी शती है तो उसका काल ईसा की तोसरी-चौथी शताब्दी मानना होगा। किन्तु यदि हम प्रज्ञापना के कर्ता आर्यश्याम के बाद नन्दीसत्र स्थविरावली में उल्लेखित स्वाति को तत्त्वार्थ
१. देखें-कसायपाहुडसुत्त पृ० टिप्पणी सहित २. कसायपाहुडसुत्त की प्रस्तावना पृ० ३८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org