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८६ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
(अ) तं वेयंतो बितिय किट्टीओ तइय किट्टीओ य दलियं धेत्तणं सुहमसांपराइय किट्टीओ करेइ तिसिं लक्खणं जहा कसायपाहुडे ।
(ब) एत्थ अपुवकरण अणियट्टि अद्धासुअणगाइ वत्तव्वगाई जहा कसायपाहुडे, कम्मपगडि संगहणीए वा तहा वत्तव्वं ।
सित्तरी पत्र ६२।२ उक्त उद्धरणों से यह तो निश्चित हो सिद्ध हो जाता है कि सित्तरी चूर्णिकार कसायपाहुड से परिचित हैं और वे उसे अपनी ही परम्परा के ग्रन्थ के रूप में उद्धृत करते हैं। पुनः चन्द्रर्षि महत्तर ने पञ्चसंग्रह में निम्न पाँच ग्रन्थों का संग्रह किया है-१. शतक (सतक) २. सप्ततिका (सत्तरी) ३. कषायप्राभूत (कसायपाहुड) ४. सत्कर्म और ५. कर्मप्रकृति (कम्मपयडी)। मलयगिरि ने अपनी टीका में कषायप्राभृत को छोड़कर शेष चार का प्रमाण रूप से उल्लेख किया है। अतः श्वेताम्बर परम्परा में १२-१३ वीं शती में कसायपाहुड उपलब्ध नहीं था। आज सतक, सत्तरी और कम्मपयडी उपलब्ध है, सत्कर्म उपलब्ध नहीं है। मेरी दृष्टि में सत्कर्म भी षट्खण्डागम के सत्प्ररूपण का ही कोई प्राचीन रूप होगा, जिसके रचयिता पुष्पदंत कहे जाते हैं। इस चर्चा का निष्कर्ष यह है कि कसायपाहुड भी आगमों की तरह उस विभक्त परम्परा का ग्रन्थ है, जिसे यापनीय और श्वेताम्बर दोनों ही मान्य करते थे। हमने आगमों की चर्चा के प्रसंग में देखा था कि आगमों का शौरसेनीकरण यापनीय परम्परा का वैशिष्ट्य रहा है। इसी प्रकार कसायपाहुड का शौरसेनीकरण भी यापनीय परम्परा की ही देन है। जिस प्रकार यापनीयों के आगम-आचारांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, कल्पसूत्र आदि श्वेताम्बर आगमों से भिन्न तो नहीं थे, किन्तु क्वचित् पाठभेद और शौरसेनो प्राकृत के प्रभाव से युक्त थे। उसी प्रकार कसायपाहुड भी यापनीय और श्वेताम्बर दोनों में वहो रहा है-मात्र क्वचित् पाठभेद और शौरसेनी प्राकृत के प्रभाव का अन्तर हो सकता है । किन्तु न तो आज यापनीय परम्परा के आगम उपलब्ध हैं और न श्वेताम्बर परम्परा का कसायपाहुड ही । अतः दोनों को समानता और अन्तर का पूरी तरह अध्ययन कर पाना सम्भव नहीं है।
उपर्युक्त विवेचन से कषायप्राभृत (कसायपाहुड) के सम्बन्ध में जो निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं, वे निम्न हैं
(१) प्राचीन दिगम्बर पट्टावलियों में गुणधर, आर्यमंक्षु और नाग
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