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यापनीय साहित्य : ८७ हस्ति का जो कि इसके कर्ता या प्रणेता माने जाते हैं, उल्लेख नहीं होने से और श्वेताम्बर पट्टावलियों में इनका उल्लेख होने से यह सिद्ध होता है कि यह मूलतः दिगम्बर परम्परा का ग्रन्थ नहीं है।
२. कल्पसूत्र, नन्दीसूत्र आदि में तथा मथुरा के शिलालेखों में आर्यमंक्षु और आर्य नागहस्ति का उल्लेख होने से एवं आर्य नागहस्ति को कर्मशास्त्र का ज्ञाता कहे जाने से यह सिद्ध होता है कि यह ग्रन्थ उस परंपरा में निर्मित हुआ है, जो श्वेताम्बरों और यापनीयों की पूर्वज थी।
३. यापनोयों को यह ग्रन्थ पूर्व परम्परा से उत्तराधिकार में मिला है, क्योंकि इतना निश्चित है कि आर्यमा और आर्य नागहस्ति न तो दिगम्बर आचार्य हैं और न यापनीय ही। यद्यपि इतना भी निश्चित है कि वे श्वेताम्बरों के समान यापनीयों के भी पूर्वज हैं। अतः यह ग्रन्थ यापनीय परम्परा में निर्मित न होकर भी यापनीयों को उत्तराधिकार में मिला है।
४. हो सकता है कि इस पर चूर्णिसूत्रों के रचियता यतिवृषभ यापनीय हों, क्योंकि यापनीयों में अपने नाम के आगे यति शब्द लगाने की प्रवृति रही है, जैसे-यतिग्रामाग्रणी भदन्त शाकटायन ।
५. दिगम्बर परम्परा को यह ग्रंथ यापनीयों के माध्यम से प्राप्त हुआ है। जैसे उन्होंने यापनीय ग्रन्थ मूलाचार, भगवती आराधना आदि को अपना लिया, उसी तरह से इसे भी अपना लिया है।
६. श्वेताम्बर कर्म-साहित्य में इसका स्पष्ट निर्देश होने से, अपने पूर्वाचार्यों की यह कृति श्वेताम्बर परम्परा में भी मान्य रही है। हो सकता है कि यापनीय और श्वेताम्बर में मान्य इस ग्रन्थ में क्वचित् पाठभेद और भाषा-भेद हो।
७. 'कसायपाहुड' का प्रतिपाद्य विषय दर्शनमोह और चारित्रमोह की. कर्म प्रकृतियों की स्थिति, बन्ध, उदय, क्षय आदि की चर्चा है। सामान्यतया इस चर्चा में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसके आधार पर ग्रन्थ के सम्प्रदाय विशेष का निश्चय हो सके; फिर भी विभिन्न गुणस्थानों में मोहनीय कर्म की प्रकृतियों के बन्ध, उदय, क्षय आदि की चर्चा करते हए उसमें स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया है कि स्त्री वेद से श्रेणी चढ़ता हुआ जीव अपगतवेदी होकर चतुर्दश गुणस्थान तक आध्यात्मिक विकास करता है। निश्चय ही लिंग तो द्रव्यचिह्न होता है, बन्धन और मुक्ति का मूल आधार तो भाव ही होता है और वेद (काम वासना) का सम्बन्ध
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