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यापनीय साहित्य : १०१
गुरु परम्परा तथा उनके काल का निर्णय नहीं किया जा सकता है । उनके काल और परम्परा का निर्णय करने का साधन हमारे पास उनके ग्रन्थ की विषयवस्तु के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है। यदि हम यह मानते हैं कि उनके विद्यागुरु धरसेन थे, तो उन्हें हमें ई० सन् की तृतीय शताब्दी से छठी शताब्दी के बीच कही भी तो स्थापित करना होगा। किन्तु यह काल-निर्णय उनकी परम्परा का आधार नहीं बन सकता। यद्यपि इतना निश्चित है कि इस काल में यापनीय संघ सुस्थापित हो चुका था और इसलिए इनके यापनीय होने की संभावना को निरस्त नहीं किया जा सकता। वस्तुतः षट्खण्डागम को यापनीय ग्रन्थ सिद्ध करने के लिए सबसे आवश्यक तथ्य उसमें स्थापित उन मान्यताओं को स्पष्ट करना है, जिनके आधार पर उसे यापनीय ग्रन्थ सिद्ध किया जा सके । अग्रिम पंक्तियों में हम उन तथ्यों को प्रस्तुत करेंगे जिनके आधार पर षट्खण्डागम और उनके कर्ता पुष्पदन्त और भूतबलि को यापनीय परम्परा का माना जा सकता है।
षट्खण्डागम के यापनीय परम्परा से सम्बन्धित होने का सबसे महत्त्वपूर्ण एवं अन्यतम प्रमाण उसमें सत्प्ररूपणा नामक अनुयोगद्वार का ९३वा सूत्र है, जिसमें पर्याप्त मनुष्यनी (स्त्री) में संयत-गुणस्थान की उपस्थिति को स्वीकार किया गया है। जो प्रकारान्तर से स्त्री-मुक्ति का सूचक है। यद्यपि दिगम्बर परम्परा में इस सत्र के 'संजद' पद को लेकर काफी ऊहापोह हुआ और मूलग्रन्थ से प्रतिलिपि करते समय कागज और ताम्रपत्र पर की गई प्रतिलिपियों में इसे छोड़ दिया गया । यद्यपि अन्त में सम्पादकों के आग्रह को मानकर मुद्रित प्रति में संजद पद रखा गया और यह संजद पद भावस्त्री के सम्बन्ध में है, ऐसा मानकर सन्तोष किया गया। प्रस्तुत प्रसंग में मैं उन सभी चर्चाओं को उठाना नहीं चाहता, केवल इतना ही कहना चाहूँगा कि षट्खण्डागम के सूत्र ८९ से लेकर ९३ तक में केवल पर्याप्त मनुष्य और अपर्याप्त मनुष्य, पर्याप्त मनुष्यनी और अपर्याप्त मनुष्यनी की चर्चा है, द्रव्य और भाव मनुष्य या मनुष्यनी की वहाँ कोई चर्चा नहीं है । अतः इस १. मणुसिणीसु मिच्छाइट्टि सासण सम्माइट्ठि ठाणे सिया पज्जत्तियाओ सिया
अपज्जतियाओ ॥९॥ सम्मामिच्छाइट्ठि असंजद सम्माइट्ठि संजदासंजद संजद णियमा पज्जत्तियाओ ॥९३॥
छक्खण्डागम खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, पृष्ठ ३३४
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