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यापनोय साहित्य : ९३ संघ, जो आगे चलकर मूलसंघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ, से सम्बद्ध नहीं थे। संभवतः इसी कारण दिगम्बर पट्टावलियाँ उनका उल्लेख नहीं करतीं । यदि वे परवर्ती काल के हैं तो अधिक से अधिक हम उन्हें उत्तर भारत में विभाजित हई अचेल परम्परा, जो कि आगे चलकर यापनीय नाम से विकसित हुई, से सम्बद्ध मान सकते हैं। संभावना यही है कि उन्होंने महाराष्ट्र, उत्तर कर्णाटक और आन्ध्र प्रदेश में विचरण कर रही उत्तर भारत की अचेल परम्परा, जो यापनीय नाम से प्रसिद्ध हई, के पुष्पदन्त और भूतबलि नामक मुनियों को कर्मशास्त्र का अध्ययन कराया हो । क्योंकि उसी परम्परा से उनकी निकटता थी। पुनः जिस नन्दीसंघ पट्टावली को आधार बनाकर यह चर्चा की जा रही है, वह नन्दीसंघ भी यापनीय परम्परा से सम्बद्ध रहा है। कणप के शक संवत् ७३५, ईस्वी सन् ८१२ के एक अभिलेख में 'श्री यापनीय नन्दिसंघ पुन्नागवृक्ष मूलगण' ऐसा स्पष्ट उल्लेख है। यापनीय और नन्दीसंघ की इस एकरूपता और नन्दीसंघ की पट्टावली में धरसेन के उल्लेख से यही सिद्ध होता है कि धरसेन यापनीय संघ से सम्बद्ध रहे हैं।
धरसेन के सन्दर्भ में जो अन्य ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध हैं, उनमें दो का उल्लेख विद्वानों ने किया है । सर्वप्रथम आचार्य धरसेन को जोणिपाहुड (योनिप्राभृत) नामक निमित्त शास्त्र के एक अपूर्व ग्रन्थ का रचयिता माना जाता है। इस ग्रंथ की एक प्रति भाण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टिट्यूट पूना में है। पंडित बेयरदास जो ने इस प्रति से जो नोट्स लिखे थे, उनके आधार पर यह ग्रन्थ पण्णसवन मुनि ने अपने शिष्य पूष्पदन्त और भूतबलि के लिए लिखा था। वि० स० १५५६ में लिखी गयी बृहटिप्पणिका में इस ग्रंथ को वीर निर्वाण के ६०० वर्ष पश्चात् धारसेन (धरसेन) द्वारा रचित माना गया है । इस ग्रंथ के उल्लेख श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में पाये जाते हैं, किन्तु दिगम्बर परम्परा में मात्र धवला की टीका में इस ग्रंथ के नाम का उल्लेख हुआ है, जबकि श्वेताम्बर परम्परा के आगमिक
१. जैन शिलालेख संग्रह भाग २ लेख क्रमांक । २. (अ) षट्खण्डागम परिशीलन (बालचन्द्र शास्त्री) पृ० २०
(ब) जैन साहित्य का बृहद्-इतिहास भाग ५ पृ० २००-२०२ ३. योनिप्राभृतं वीरात् ६०० धारसेनम्
-बृहट्टिप्पणिका जैन साहित्य संशोधक परिशिष्ट १, २
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