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९२ : जैनधर्म का यापनोय सम्प्रदाय नन्दि को परम्परा और गुणधर तथा धरसेन को परम्परायें एक न होकर भिन्न-भिन्न हैं। यदि इन्द्रनन्दि को मूलसंघीय परम्परा का माना जाय तो स्पष्ट है कि धरसेन की परम्परा उससे भिन्न रही । मात्र यही नहीं इस कथन से यह भी फलित होता है कि इन्द्रनन्दि के समक्ष उस परम्परा के न तो आगम ग्रन्थ ही थे और न मुनिजन ही। यह स्पष्ट है कि इन्द्रनन्दि के समय में अर्थात् ग्यारहवीं शती में यापनीय परम्परा के आगम और मुनिजन दोनों ही विलुप्तप्रायः हो रहे थे। यह भी स्पष्ट है कि उस काल तक अनेक यापनीय ग्रन्थ मूलसंघीय आचार्यों द्वारा कतिपय परिवर्धन और संशोधन कर आत्मसात् कर लिये गये थे। ऐसी स्थिति में अनुश्रुति से आर्य गुणधर, आर्य मंक्षु, आर्य नन्दि, आर्य नागहस्ति और धरसेन आदि के नाम तो दिगम्बर परम्परा में अवशिष्ट रह गये किन्तु उनके गणपरम्परा आदि के सम्बन्ध में कोई जानकारी अवशिष्ट नहीं रह सकी । इससे इतना तो निश्चित है कि धरसेन मूलसंघीय दिगम्बर परम्परा से 'भिन्न किसी अन्य परम्परा के आचार्य रहे हैं। तिलोयपण्णत्ति, हरिवंश पुराण और अभिलेखीय-पट्टावली (अभिलेख क्रमांक १ और १०५) में धरसेन का नामोल्लेख न होना भी यही सूचित करता है कि या तो वे किसी भिन्न परम्परा के थे या फिर इनमें सूचित आचार्यों से पर्याप्त परवर्ती हैं।
यदि कुछ समय के लिए नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टावली को प्रमाण मान लें, तो उससे यह सिद्ध होता है कि धरसेन वीर निर्वाण संवत ६३३ में दिवंगत हुए। उसमें उनका आचार्य काल १९ वर्ष माना गया है, अतः वे वीर निर्वाण संवत् ६१४ में आचार्य हुए। यदि वे अपनो आयु के ५०वें वर्ष में आचार्य हुए हों तो यह माना जा सकता है कि लगभग उसके ३० वर्ष पूर्व वे दीक्षित हुए होंगे। अतः उनकी दीक्षा का समय वीर ' निर्वाण संवत् ५८४ के आस-पास हो सकता है। अतःधरसेन संघ भेद की घटना के, जो वीर निर्वाण संवत् ६०९ में घटित हुई थी, पूर्व ही दोक्षित हो चुके थे। निष्कर्ष यह है कि वे संघ भेद को घटना के पूर्व अविभक्त उत्तर भारतीय निर्ग्रन्थ परम्परा के किसी गण के आचार्य रहे होंगे। यद्यपि यह संभव हो सकता है कि वे संघ-भेद के समय अचेल परम्परा के पक्षधर रहे हों, किन्तु इतना सुनिश्चित है कि वे दक्षिण भारतीय निर्ग्रन्थ
१. देखे षट्खण्डागम धवला टीका समन्वित खण्ड १ भाग १ पुस्तक १ की
प्रस्तावना (प्रो० हीरालाल जैन) पृ० २६
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