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९० : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय षट्खण्डागम
षट्खण्डागम शौरसेनी प्राकृत में रचित जैन कर्मसिद्धान्त का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें कर्मप्रकृतियों का और उनके उदय, उदीरण, सत्ता, संक्रमण आदि का विवेचन गुणस्थान सिद्धान्त को केन्द्रीभूत मानकर किया गया है । इसके रचयिता पुष्पदन्त और भूतबलि माने जाते हैं। यह कहा जाता है कि इन्होंने आचार्य धरसेन से 'महाकर्मप्रकृतिप्राभृत' का अध्ययन करके उसके आधार पर षट्खण्डागम की रचना की। धरसेन, उनको परम्परा और काल
सर्वप्रथम यह जानना आवश्यक है कि ये धरसेन किस परम्परा के थे और कब हुए ? कल्पसूत्र और नन्दीसूत्र की स्थविरावलियों से हमें धरसेन के सम्बन्ध में कोई भी सूचना प्राप्त नहीं होती। दिगम्बर परंपरा में तिलोयपण्णत्ति', हरिवंश पुराण, धवला आदि में पूर्वज्ञान और अंगज्ञान के वीरनिर्वाण सं० ६८३ तक के विच्छेदक्रम को सूचित करते हुए उनमें ज्ञान के धारक आचार्यों की, जो परम्परा प्रस्तुत की गई है, उसमें धरसेन का कहीं भी उल्लेख नहीं है। किन्तु धवला में इतना अवश्य कहा गया है कि इस प्रकार श्रुत के उत्तरोत्तर क्षीण होनेपर अंगों एवं पूर्वो का एकदेश ज्ञान आचार्य परम्परा से आता हुआ धरसेनाचार्य को प्राप्त हुआ। इसका तात्पर्य यह है कि लोहार्य और धरसेनाचार्य के बीच की आचार्यपरम्परा धवलाकार को भी ज्ञात नहीं थी। सम्भवतः इन दोनों के बीच काल का अधिक अन्तरालं रहा होगा अथवा उस परम्परा से धरसेन का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं रहा होगा। धवला के अतिरिक्त धरसेन का उल्लेख नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टावली तथा इन्द्रनन्दि के श्रुतावतार में भी मिलता है । हमारा दुर्भाग्य यह है कि आज अचेल परम्परा के पास १. तिलोयपण्णत्ति ४।१४७६-१४९२ २. हरिवंशपुराण (पुन्नाटसंघीय जिनसेनकृत) सर्ग ६६।२२-२४ ३. षट्खण्डागम, धवला टीका समन्वित, खण्ड १ भाग १ पुस्तक पृ० ६७:६८ ४. (अ) सव्वेसिमंगपुव्वाणमेगदेसो आइरिय परंपराए आगच्छमाणो धरसेणा
इरियं संपत्तो-वही, खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, पृ० ६४
(ब) वही खण्ड ४ भाग १ पुस्तक ९ पृ० ८१-८२ . ५. षट्खण्डागम धबला टीका समन्वित, खण्ड १ - भाग १ पुस्तक की प्रस्तावना
(प्रो० हीरालाल जैन) पृ० २१-२२ पर उद्धृत । ६. श्रुतावतार १५१
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