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८४ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
परम्परा शिष्य प्रतीत होते हैं, क्योंकि दोनों के बीच सात अन्य आचार्यों का उल्लेख हुआ है।' कल्पसूत्र स्थविरावली मक्ष (मंग) का उल्लेख नहीं करती है उसमें मात्र नागहस्ती का नाम है, यह विवाद का विषय हो सकता है किन्तु इतना सुनिश्चित है कि आर्य नागहस्ती 'कर्म कृति' के विशेष ज्ञाता थे और उनके माध्यम से ही 'कर्म प्रकृति' के अध्ययन को परम्परा आगे बढ़ी । आर्य मंक्षु और आर्य नागहस्ती का समय श्वेताम्बर पट्टावलियों तथा मथुरा के अभिलेख के अनुसार ईसा को प्रयम शताब्दी का अन्त और द्वितीय शताब्दी का पूर्वार्ध निश्चित होता है। मथरा के हविष्ककालीन अभिलेखों में भी आर्य नन्दिल, नन्दिक और आर्यहस्ती के उल्लेख मिलते हैं। इसी प्रकार मथुरा के एक अभिलेख में आर्य मंक्षु का भी उल्लेख है, इसमें इन्हें कोट्टियगण, वैरा शाखा और ठानीय कुल का बताया गया है। इन सबका उल्लेख कल्पसूत्र पट्टावलो में भी है । वस्तुतः उसमें कुल को बानिय कहा गया है। अतः कल्पसूत्र और नन्दोसूत्र में उल्लिखित आर्य मंक्षु और अभिलेख में उल्लेखित आर्य मंक्षु एक ही हैं। इससे सिद्ध होता है कि कसायपाहुड सुत्त का सम्बन्ध इसी परम्परा से था। कल्पसत्र की स्थविरावली के अनुसार इस वज्री (वइरा) शाखा में शिवभूति और आर्यकृष्ण हुए। आर्यकृष्ण (अज्जकण्ह) का उल्लेख भी मथुरा के अभिलेखों में है। आवश्यक मूलभाष्य में इन्हीं आर्य कृष्ण के शिष्य शिवभूति से बोटिक परम्परा का उद्भव बताया गया है। यही बोटिक परम्परा आगे चलकर यापनीय कहलायो । कसायपाहुड इसी बोटिक या यापनीय परम्परा का ग्रन्थ है । यद्यपि यह माना जाता है कि आचार्य गुणधर आर्य मंक्षु के पूर्व हुए थे किन्तु दिगम्बर परम्परा में गणधर नामक किसी आचार्य का अस्तित्व ही विवादास्पद है । क्योंकि उनके सम्बन्ध में दसवीं शती के जयधवला के इस उल्लेख के अतिरिक्त अन्य कोई भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। वैसे जयधवला में जो यह कहा गया है कि गणधर के मुखकमल से निकली ये गाथाएँ आर्य मंक्षु और नागहस्ती के द्वारा अवधारण की गई। इससे फलित होता है कि वस्तुतः मल में गणधर (गणहर) ही होगा और आगे चलकर भ्रान्तिवश उसे गुणधर मान
१. देखें-पट्टावली परागसंग्रह पृ० ४७ । २. देखें-वही, पृ० ३. जैन शिलालेख संग्रह भाग २, लेख क्रमांक ४१ ४. वही, भाग २, लेख क्रमांक ५४
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