________________
५४ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय मन्दिरों में और स्थानकों में प्रमार्जनी के रूप में पटसन की कुंचियों का उपयोग होते स्वयं लेखक ने देखा है।
(४) कूचकों के श्वेताम्बर होने के पक्ष में एक तर्क यह भी है कि उस अभिलेख में यापनीय कूर्चक और निर्ग्रन्थ (दिगम्बर) का ही उल्लेख है और कूर्चक यापनीयों और दिगम्बरों से भिन्न श्वेताम्बर माने जा सकते हैं। फिर भी जब तक निश्चित प्रमाण न मिले, इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि अचेलक सम्प्रदाय का एक वर्ग जो दाढ़ी-मूंछ या कंघी या वानस्पतिक रेशों का गोच्छग रखता था, कूर्चक हो किन्तु इतना निश्चित ही है कि कूर्चक निर्ग्रन्थ (दिगम्बर) और यापनीय से भिन्न हैं। इस सम्बन्ध में अधिक निश्चितरूप से कुछ कहने के लिए वारिषेण और चन्द्रक्षात मुनि तथा उनकी गुरु या शिष्य परम्परा से सम्बन्धित कुछ अभिलेखीय या साहित्यिक साक्ष्य खोजने होंगे। यदि किसी परम्परा की पट्टावली ईस्वी सन् की पाँचवी शताब्दी के लगभग किसी वारिषेण आचार्य या चन्द्रक्षात मुनि का उल्लेख मिल जाता है तो जैनों के कर्चक सम्प्रदाय के सम्बन्ध में अधिक प्रामाणिकता पूर्वक कुछ कहा जा सकता है । आशा है विद्वद् वर्ग इस दिशा में प्रयत्न जारी रखेगा।।
कूर्चकों और यापनीयों के पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर कुछ कह पाना कठिन है, क्योंकि कर्चकों की मान्यताओं और उनके आचार-व्यवहार के सम्बन्ध में कोई भी साहित्यिक एवं अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। इस सम्बन्ध में हम जो कुछ भी कह सकते हैं वह एक तार्किक परिकल्पना से अधिक कुछ भी नहीं है। जैसा कि हम पूर्व में निर्देश कर चुके हैं कि यदि कर्चक कोच्छ (कौत्स) गोत्रीय शिवभति की परम्परा से सम्बन्धित हैं तो हमें यह मानना होगा कि यापनीय और कूर्चक दोनों एक ही परम्परा की दो शाखएँ हैं। यदि हम कूर्चकों को वर्ष में एकबार केश लोच करने के कारण दाढ़ी-मंछ से युक्त अथवा कंघी या ऊन, वानस्पतिकरेशों आदि का बना गोच्छग (कर्ची) रखने वाले मानते हैं तो श्वेताम्बरों के साथ उनकी निकटता प्रतीत होती है। फिर भी यह कह पाना कठिन ही है कि वे सचेल परम्परा के थे या अचेल परम्परा के, सम्भावनाएँ दोनों ही हो सकती हैं । परन्तु ये सब परिकल्पनायें ही हैं। ई० सन् की ५वीं शती के इन दो अभिलेखों के अतिरिक्त कर्चकों के सम्बन्ध में अन्य कोई भी अभिलेखीय या साहित्यिक साक्ष्य उपलब्ध न होने से इतना तो निश्चित है कि यह संघ बहुत ही अल्पजीवी रहा है और इसकी मान्यताओं के सम्बन्ध में अधिक कुछ भी नहीं कहा जा सकता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org