________________
यापनीय साहित्य ६९
विच्छिन्न हो गये हैं । वे आचारांग सूत्रकृतांग, दशवेकालिक, उत्तरा - ध्ययन, निशीथ, बृहत्कल्प, व्यवहार, कल्प आदि को अपनी परम्परा के ग्रन्थों के रूप में उद्धरित करते थे । इस सम्बन्ध में आदरणीय पं० नाथूराम प्रेमी का यह कथन द्रष्टव्य है- "अक्सर ग्रन्थकार किसी मत का खण्डन करने के लिए उसी मत के ग्रन्थों का हवाला दिया करते हैं और अपने सिद्धान्त को पुष्ट करते हैं । परन्तु इस टीका (अर्थात् भगवती आराधना की विजयोदया टीका) में ऐसा नहीं है, इसमें तो टीकाकार ने अपने ही आगमों का हवाला देकर अचेलता सिद्ध की है । ""
3
आगमों के अस्तित्व को स्वीकार कर उनके अध्ययन और स्वाध्याय सम्बन्धी निर्देश भी यापनीय ग्रंथ मूलाचार में स्पष्ट रूप से उपलब्ध होते हैं। मूलाचार में चार प्रकार के आगम ग्रन्थों का उल्लेख है - (१) गणधर कथित, (२) प्रत्येकबुद्ध कथित, (३) श्रुतकेवलि कथित और (४) अभिन्न दशपूर्णी कथित ।
इसके साथ ही यह भी कहा गया है कि संयमी पुरुषों एवं स्त्रियों अर्थात् मुनियों एवं आर्यिकाओं के लिए अस्वाध्यायकाल में इनका स्वाध्याय करना वर्जित है किन्तु इनके अतिरिक्त कुछ अन्य ऐसे ग्रन्थ हैं जिनका अस्वाध्यायकाल में पाठ किया जा सकता है, जैसे - आराधना ( भगवती - आराधना ) नियुक्ति, मरणविभक्ति, संग्रह (पंचसंग्रह या संग्रहणीसूत्र) स्तुति (देविदत्थु ), प्रत्याख्यान (आउर पच्चक्खाण एवं महापच्चक्खाण ) धर्मकथा ( ज्ञाताधर्मकथा) तथा ऐसे ही अन्य ग्रन्थ
यहाँ पर चार प्रकार के आगम ग्रन्थों का जो उल्लेख हुआ है, उस पर थोड़ी विस्तृत चर्चा अपेक्षित है, क्योंकि मूलाचार की मूलगाथा में मात्र इन चार प्रकार के सूत्रों का उल्लेख हुआ है । उसमें इन ग्रन्थों का नामनिर्देश नहीं है । मूलाचार के टीकाकार वसुनन्दि न तो यापनीय परम्परा से सम्बद्ध थे और न उनके सम्मुख ये ग्रन्थ ही थे । अतः इस प्रसंग में
१. जैन साहित्य और इतिहास (पं नाथूराम प्रेमी) पृ० ६१ ।
२. सुत्तं गणधर कधिदं तहेव पत्तेयबुद्ध कधिदं च ।
सुदवला कधिदं अभिण्ण दसपुव्व कधिदं च ॥ तं पढिदुमसज्झाये णो कप्पदि विरद इत्थिवग्गस्स । एत्तो अण्णो गंथो कप्पदि पढिदुं असज्झाए । आराहणा निज्जुत्ती मरणविभत्ती संगहत्थुदिओ । पच्चक्खाणावासयधम्कहाओ
Jain Education International
य एरिसओ ॥ - मूलाचार, ५/८०-८२ ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org