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अध्याय ३
यापनीय साहित्य
यापनीय परम्परा के मान्य ग्रन्थों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है— प्रथम वे ग्रन्थ जो उत्तरीय जैन संघ की अविभक्त धारा में यापनीयों के पृथक होने के पूर्व से चले आ रहे थे और जिन्हें वे भी मान्य करते थे, अर्थात् जो उन्हें विरासत में प्राप्त थे । दूसरे वे ग्रन्थ जिन्हें यापनीय आचार्यों ने स्वयं निर्मित किया था या जिन पर उन्होंने टीकाएँ लिखी थीं । प्रथम प्रकार में मुख्यतः वे आगम ग्रन्थ आते हैं, जिन्हें यापनीय मान्य करते थे और जिनके उद्धरण सम्मानपूर्वक अपने मत के समर्थन में प्रस्तुत करते हैं। इन ग्रंथों में आचारांग, सूत्रकृतांग, ज्ञाताधर्मंकथा, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, निशीथ, जीतकल्प, व्यवहार, आवश्यक आदि आगम तथा इन आगमों की नियु - क्तियाँ, मरण-विभक्ति, संस्तारक, संग्रह, स्तुति (देविन्द थुई) प्रत्याख्यान ( आतुर एवं महाप्रत्याख्यान) आदि प्रकीर्णक तथा कर्मप्रकृति (कम्मपयडी) आदि कर्म साहित्य के ग्रन्थ हैं । इन आगमिक ग्रन्थों के अध्ययन-अध्यापन और स्वाध्याय की परम्परा यापनियों में थी । दूसरे प्रकार के ग्रंथ वे हैं, जिनकी इन ग्रन्थों की विषय-वस्तु के आधार पर अथवा इनकी गाथाओं को लेकर अथवा स्वतन्त्र रूप से यापनीय आचार्यों ने स्वयं रचना की थी । इन ग्रन्थों में कसायपाहुड (पेज्जदोसपाहुड), षट्खण्डागम ( छक्खण्डागम), कसायपाहुड पर यतिवृषभ के चूर्णिसूत्र, शिवार्य की भगवती आराधना, बट्टकेर का मूलाचार, हरिषेण का बृहत्कथाकोश, जिनसेन का हरिवंशपुराण, शाकटायन-व्याकरण और उसकी स्वोपज्ञ अमोघवृत्ति, स्त्रीमुक्ति और केवलिमुक्ति प्रकरण अपराजित सूरि की आराधना और दशवैकालिक पर विजयोदया टीका, स्वयंभू का पउमचरिउ, जटासिंहनन्दि का वारांगचरित्र आदि उल्लेखनीय हैं । आचार्य हरिभद्र ने 'यापनीयतन्त्र' का भी उल्लेख किया है ।
यापनीयों के आगम
यापनीय संघ के आचार्य आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवेकालिक, कल्प, निशीथ, व्यवहार, आवश्यक आदि आगमों को मान्य करते थे । इस प्रकार आगमों के विच्छेद होने की जो दिगम्बर मान्यता है, वह उन्हें स्वीकार्य नहीं थी । यापनीय आचार्यों द्वारा निर्मित किसी भी ग्रन्थ में कहीं भी यह उल्लेख नहीं है कि अंगादि - आगम
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