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यापनीय साहित्य : ७१
स्वाध्याय का निर्देश करता है। मात्र यही नहीं मूलाचार में आगमों के अध्ययन की उपधान विधि अर्थात् तप पूर्वक आगमों के अध्ययन करने की विधि का भी उल्लेख है।' आगमों के अध्ययन की यह उपधान विधि श्वेताम्बरों में आज भी प्रचलित है। विधिमार्गप्रथा में इसका विस्तृत उल्लेख है। इससे यह भी स्पष्ट रूप से प्रमाणित हो जाता है कि मूलाचार उसी यापनोय परम्परा का ग्रन्थ है, जो आगमों को विच्छिन्न नहीं मानती थी और जिसमें इन आगमों के अध्ययन, अध्यापन और स्वाध्याय की परम्परा थी। यापनीय परम्परा में ये अंग आगम और अंगबाह्य आगम प्रचलन में थे इसका प्रमाण यह है कि नवों शताब्दी में यापनीय आचार्य अपराजित भगवती-आराधना की टोका में न केवल इन आगमों से अनेक उद्धरण प्रस्तुत करते हैं, अपितु स्वयं दशवैकालिक पर टीका भी लिख रहे हैं। मात्र यही नहीं, यापनोय पयूषण के अवसर पर कल्पसूत्र का वाचन भी करते थे, ऐसा निर्देश स्वयं दिगम्बराचार्य कर रहे हैं। क्या यापनीय आगम वर्तमान श्वेताम्बर आगमों से भिन्न थे?
इस प्रसंग में यह विचारणीय है कि यापनीय के ये आगम कौन से थे? क्या वे इन नामों से उपलब्ध श्वेताम्बर परम्परा के आगमों से भिन्न थे या यही थे ? हमारे कुछ दिगम्बर विद्वानों ने यह कहने का अतिसाहस भी किया है कि ये आगम वर्तमान श्वेताम्बर आगमों से सर्वथा भिन्न थे। पं० कैलाशचन्द्र जी ने ऐसा ही अनुमान किया है, वे लिखते हैं कि "जैन परम्परा में दिगम्बर और श्वेताम्बर के समान एक यापनीय संघ भी था। संघ यद्यपि नग्नता का पक्षपाती था तथापि श्वेताम्बरीय आगमों को मानता था। इस संघ के आचार्य अपराजित सूरि की संस्कृत टीका भगवती आराधना नामक प्राचीन ग्रन्थ पर है। जो मुद्रित भी हो चुकी है। उसमें नग्नता के समर्थन में अपराजित सूरि ने आगम ग्रन्थों से अनेक उद्धरण दिये हैं, जिनमें से अनेक उद्धरण वर्तमान आगमों में नहीं मिलते।" आदरणीय पं० जी ने यहाँ जो 'अनेक' शब्द का प्रयोग किया है वह भ्रान्ति उत्पन्न करता है । मैंने अपराजित सूरि की टीका में उद्धृत आगमिक सन्दर्भो की श्वेताम्बर आगमों से तुलना करने पर स्पष्ट रूप से
१. मूलाचार, ५।२८२ । २. विधिमार्गप्रपा, योगविधि, पृ० ४९-५१ । ३. जैन साहित्य का इतिहास पूर्व पीठिका पृ० ५२५ ।
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