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७४ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
मान्य रखा हो । दूसरे यह है कि यापनियों ने उन आगमोंका शौरसेनीकरण करके श्वे० परम्परा में मान्य आचारांग आदि से उनमें अपनी परम्परा के अनुरूप कुछ पाठभेद रखा हो । किन्तु इस आधार पर भी यह. यह कहना उचित नहीं होगा कि यापनीय और श्वेताम्बर परम्परा के आगम भिन्न थे। ऐसा पाठ-भेद तो एक ही परम्परा के आगमों में भी उपलब्ध है। स्वयं पं० कैलाशचन्द्र जी ने अपने ग्रन्थ जैन साहित्य का इतिहास-पूर्वपीठिका में जो अपराजितसूरि की भगवतीआराधना की टीका से आचाराङ्ग का उपयुक्त पाठ दिया है, उसमें और स्वयं उनके द्वारा सम्पादित भगवती आराधना की अपराजित सूरि की टीका में उद्धरित पाठ में ही अन्तर है--एक में 'थीण' पाठ है--दूसरे में 'थीरांग' पाठ है,. जिससे अर्थ भेद भी होता है। इसी प्रकार उत्तराध्ययन को गाथा के. सन्दर्भ में जहाँ पूर्वपीठिका में 'परिचत्तेसु' पाठ है, वहाँ आराधना में 'परिणत्तेसु' पाठ है। एक ही लेखक और सम्पादक की कृति में भी पाठ भेद हो तो भिन्न परम्पराओं में किंचित् पाठ भेद होना स्वाभाविक है, किन्तु उससे उनकी पूर्ण भिन्नता की कल्पना नहीं की जा सकती है। पुनः यापनीय परम्परा द्वारा उद्धत आचारांग उत्तराध्ययन आदि के उपयुक्त पाठों की अचेलकत्व की अवधारणा का प्रश्न है, वह श्वेताम्बर परम्परा के आगमों में आज भी उपलब्ध है। ____ इसी प्रसंग में उत्तराध्ययन की जो अन्य गाथायें उद्धत की गई हैं, वे आज भी उत्तरध्ययन के २३ वें अध्ययन में कुछ पाठ भेद के साथ उपलब्ध हैं। आराधना की टीका में उद्धत इन गाथाओं पर भी शौरसेनी का स्पष्ट प्रभाव है। यह भी स्पष्ट है कि मल उत्तराध्ययन अर्धमागधी की रचना है। इससे ऐसा लगता है कि यापनीयों ने अपने समय के. अविभक्त परम्परा के आगमों को मान्य करते हुए भी उन्हें शौरसेनी प्राकृत में रूपान्तरित करने का प्रयास किया था, अन्यथा अपराजित की टीका में मूल आगमों के उद्धरणों का शौरसेनी रूप न मिलकर अर्धमागधी रूप ही मिलता है। इस सम्बन्ध में पं० नाथराम जी प्रेमी का निम्न वक्तव्य विचारणीय है--
'श्वेताम्बर संप्रदाय मान्य जो आगम ग्रन्थ हैं, यापनीय संघ शायद उन सभी को मानता था, परन्तु ऐसा जान पड़ता है कि दोनों के आगमों में कुछ पाठ-भेद था और उसका कारण यह हो कि उपलब्ध वल्लभी वाचना के पहले की कोई वाचना ( संभवतः माथुरी वाचना) यापनीय.
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