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७२ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय यह पाया है कि लगभग ९० प्रतिशत सन्दर्भो में आगमों की अर्धमागधी प्राकृत पर शौरसेनी प्राकृत के प्रभाव के फलस्वरूप हुए आंशिक पाठभेद को छोड़कर कोई अन्तर नहीं है। जहाँ किंचित् पाठभेद है वहाँ भी अर्थ भेद नहीं है। आदरणीय पंडित जी ने इस ग्रन्थ में भगवतीआराधना की विजयोदया टीका से आचारांग का एक उद्धरण प्रस्तुत करते यह दिखाया है कि यह वर्तमान आचारांग में नहीं मिलता है। उनके द्वारा प्रस्तुत वह उद्धरण निम्न है
तथा चोक्तमाचारङ्गे-सुदं में* आउस्सत्तो* भगवदा एवमक्खादा इह खलु संयमाभिमुखा दुविहा इत्थी पुरिसा जादा हवंति । तं जहा सव्वसमण्णागदे णो सव्वसमण्णागदे चेव । तत्थ जे सव्वसमण्णागदे थिणा* हत्थपाणीपादे सव्विदिय समण्णागदे तस्स णं णो कप्पदि एगमवि वत्थ धारिउं एवं परिहिउं एवं अण्णत्थ एगेण पडिलेहगेण इति ।२
निश्चय हो उपर्युक्त सन्दर्भ आचारांग में इसी रूप में शब्दशः नहीं है किन्तु 'सव्वसमन्नागय' नामक पद और उक्त कथन का भाव आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध के अष्टम अध्ययन में आज भी सुरक्षित है । अतः इस आधार पर यह कल्पना करना अनुचित होगा कि यापनीय परम्परा का आचारांग, वर्तमान में श्वेताम्बर परम्परा में उपलब्ध आचारांग से भिन्न था। क्योंकि अपराजित सरि द्वारा उद्धरित आचारांग के अन्य सन्दर्भ आज भी श्वेताम्बर परम्परा के आचारांग में उपलब्ध हैं। अपराजित ने आचारांग के लोकविचय नामक द्वितीय अध्ययन के पञ्चम उद्देशक के उल्लेखपूर्वक जो उद्धरण दिया है, वह आज भी उसी अध्याय के उसी उद्देशक में उपलब्ध है। इसी प्रकार उसमें 'अहं पुण एवं जाणेज्ज उपातिकते हेमते"ठविज्ज' जो यह पाठ आचारांग से उद्धृत है-वह भी वर्तमान आचारांग के अष्टम अध्ययन के चतुर्थ उद्देशक में है। उत्तराध्ययन, सूत्रकृतांग तथा कल्प आदि के सन्दर्भो की भी यही लगभग यह स्थिति है। अब हम उत्तराध्ययन के सन्दर्भो पर विचार करेगें। आदरणीय पंडित जी ने जैन साहित्य की पूर्वपीठिका में अपराजित की भगवती आराधना की टीका की निम्न दो गाथाएं उद्धृत की है१. देखें-(अ) भगवती आराधना, विजयोदयाटीका (सं० ५० कैलाशचन्द्र जी)
गाथा-४२३ की टीका पृ० ३२०-३२७ । २. शुद्ध पाठ इस प्रकार होना चाहिए
में = मे, *आउस्सत्तो = आउस्संतो, *थिणा = थिरांग ।
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