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यापनीय संघ के गण और अन्वय : ६१
में' तथा स्वतन्त्र विचारक पं० आशाधर ने अपने सागारधर्मामृत' में क्षुल्लकों की वीरचर्या का स्पष्ट रूप से निषेध किया है किन्तु लाटी संहिता में पं० राजमल्ल जी, जो अपने को काष्ठासंघ और माथुर गच्छ का मानते हैं-वीरचर्या का स्पष्ट रूप से समर्थन करते हैं। मात्र यही नहीं वे क्षुल्लकों की सम्पूर्ण भिक्षाचर्या का विवरण भी प्रस्तुत करते हैं। अतः जबतक इस संघ के अन्य किसी ग्रन्थ में कोई स्पष्ट उल्लेख न मिले इस निर्णय पर पहुँचना कठिन है कि माथुरसंघीय स्पष्ट रूप से वीरचर्या का निषेध करते थे । श्रीमती (डा०) कुसुम पटोरिया ने जो यह लिखा है कि माथुरगच्छ वीरचर्या का निषेध करता है उसका आधार क्या है, यह स्पष्ट नहीं है । यदि उनका आधार वसुनन्दी और आशाधर हैं, तो ये दोनों माथुरगच्छीय नहीं है अतः इनके ग्रन्थों के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता है कि माथुरगच्छ क्षुल्लकों की वीरचर्या का निषेध करता है। यद्यपि आशाधर के धर्मामृत (सागर) की टीका में वीरचर्या का अर्थ भिक्षावृति किया गया है, किन्तु हमें यह अर्थ उचित नहीं लगता है, क्योंकि वसुनन्दी और आशाधर दोनों ही क्षुल्लकों की वीरचर्या का निषेध करने वाली इस गाथा के पूर्व ऊपर की गाथाओं में क्षुल्लक और ऐलक को भिक्षाचर्या विधि का प्रतिपादन करते हैं । अतः वीरचर्या का अर्थ अन्य कुछ होना चाहिए।
पूनः लाटीसंहिता में यद्यपि क्षुल्लक और ऐलक को उत्कृष्ट श्रावक कहा जाना इस तथ्य का सूचक है कि उनपर मूलसंघीय परम्परा का प्रभाव है किन्तु उनके लिए ईषत्मुनि, सन्मुनिरेव आदि विशेषणों का प्रयोग यह सूचित करता है कि उनपर यापनीय प्रभाव भी है । पुन्नाटसंघ और यापनीय संघ
पुन्नाटसंघ के सन्दर्भ में साहित्यिक साक्ष्य तो ईसवी सन् आठवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से मिलने लगते हैं, किन्तु अभिलेखीय साक्ष्य बारहवीं शताब्दी से पूर्व के नहीं मिलते । सुलतानपुर के सन् ११५४ के शिलालेख में आचार्य अमृतचन्द्र के शिष्य विजयकीर्ति को पुन्नाट बताया १. दिणपडिम वीरचरिया-तियाल योगेसु णत्थि अहियारो सिद्धन्तरहंसाणवि अज्झयणं देसविरदाणं ।
-वसु० श्रा० ३१२/५० २. श्रावको वीरचर्याह प्रतिमातापनादिषु । स्यान्नाधिकारी सिद्धान्तरहस्याध्ययनेऽपि ॥
--सागरधर्मामृत ७/५०.
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