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यापनीय संघ के गण और अन्वय : ५९
परीक्षण के उपरान्त बड़ी दीक्षा के रूप में छेदोपस्थापनीय चारित्र प्रदान करके उसे पाँच महाव्रतों के पालन की प्रतिज्ञा कराई जाती है । जहाँ अचेलक परम्परा की मूलसंघ आदि अन्य कुछ शाखाएँ सवस्त्र स्त्री को मात्र सामायिक चारित्र प्रदान करते थे, वहाँ यापनीय और काष्ठासंघ दोनों ही स्त्री को छेदोपस्थापनीय चारित्र भी प्रदान करते थे। दूसरे शब्दों में जहाँ अन्य अचेल परम्पराओं में स्त्री को नग्न न हो पाने के कारण मुनि पद के अयोग्य माना जाता था, वहाँ यापनीय और काष्ठासंघीय उसे मुनि-पद के योग्य मानते थे। काष्ठासंघ की अन्य मान्यताओं के सन्दर्भ में “खुल्लयलोयस्स वीर चरियअतं" का उल्लेख भी देवसेन ने किया है। यहाँ क्षुल्लकों को वीरचर्या का अर्थ स्पष्ट करना आवश्यक है। क्षुल्लक का अर्थ सवस्त्र मुनि या ईषत्मुनि है और वीरचर्या का अर्थ 'स्वयं भ्रामर्या भोजनम्' अर्थात् भिक्षावृत्ति से भोजन प्राप्त करना है।' इस प्रकार क्षल्लकों के लिए भी मुनि-सदश भिक्षाचर्या का विधान यापनीय और काष्ठासंघ में समान रूप से स्वीकृत था। इसके अतिरिक्त काष्ठासंघ भी यापनीयों के सदृश ही रात्रि-भोजन निषेध को छठे अणुव्रत के रूप में स्वीकार करता था। स्मरण रहे कि श्वेताम्बर और यापनीय परम्पराएँ रात्रि भोजन निषेध को षष्ठव्रत के रूप में स्वीकार करती हैं । 'दशवैकालिक सूत्र' में स्पष्ट रूप से रात्रि-भोजन निषेध को षष्ठव्रत कहा गया है। अतः हम कह सकते हैं कि यापनीय और काष्ठासंघ की मान्यताएँ बहुत कुछ समान ही थीं। यह सम्भव है कि जब यापनीयों का पुन्नागगण पुन्नाटसंघ के रूप में और पुन्नाटसंघ पुन्नाटगच्छ के रूप में काष्ठासंघ में अन्तर्भावित हुआ तो उसके प्रभाव से ये मान्यताएं काष्ठासंघ में आई हैं। अनेक दिगम्बर विद्वानों ने भी यह स्वीकार किया है कि काष्ठासंघ का आविर्भाव पुन्नाटगच्छ, बागड़ गच्छ, लाड़बागड़ गच्छ और नन्दीतट गच्छ के सम्मिलन से ही हुआ है । ____संक्षेप में हम कह सकते हैं कि काष्ठासंघ और यापनीय संघ में सैद्धान्तिक दृष्टि से अधिक दूरी नहीं है और यही कारण है कि आगे चलकर यापनीय संघ के अनेक गण और अन्वय काष्ठासंघ में अन्तर्भावित होते दिखाई देते हैं।
१. धर्मामृत (सागार)-आशाघर, ज्ञानदीपिका पञ्जिका सह, पृ० ३०४ । २. दशवैकालिक ४। ३. भट्टारक सम्प्रदाय पृ० २१३ ।
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