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यापनीय संघ के गण और अन्वय : ५७
होगा कि माथुर आदि चार संघों का एकीकरण होकर १२वीं शती में काष्ठा संघ की स्थापना हुई है । वे देवसेन की कृति 'दर्शनसार' के रचनाकाल को भी संशयास्पद मानते हैं। उनके अनुसार दर्शनसार उन देवसेन की कृति है जिनकी चरणपादुकाएँ १५४५ में स्थापित हुई थीं।' काष्ठा संघ को 'गोपिच्छिक' भी कहा गया है । ___काष्ठासंघ को पूर्वोक्त चार मान्यताओं के अतिरिक्त कुछ विद्वानों ने काष्ठ की प्रतिमा की पूजा के विधान को भी काष्ठासंघ को विशिष्ट मान्यता कहा है। काष्ठासंघ के उत्पत्ति स्थल के सम्बन्ध में भी विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वान् मथरा के पास काष्ठा नामक ग्राम में इसकी उत्पत्ति मानते हैं तो कुछ नन्दीतट ग्राम (वर्तमान नांदेड) में और कुछ अग्रोहा में इसकी उत्पत्ति बताते हैं। काष्ठा संघ के संस्थापक के रूप में लोहाचार्य का उल्लेख है।६ काष्ठासंघ का विशेष प्रभाव अग्रवाल समाज पर था। लोहे का व्यवसाय करने के कारण अग्रवाल समाज का एक वर्ग आज भी लोहिया कहा जाता है। सम्भावना यह है कि लोहियों के वंश का होने के कारण अथवा लोहियों के धर्मगुरु होने से उन्हें लोहाचार्य कहा गया होगा । स्मरण रहे कि लौहकार और लौह-वणिक् ऐसे दो वर्गों का उल्लेख मथुरा के प्राचीन जैन अभिलेखों में भी मिलता है । लोहियों का सम्बन्ध इन्हीं लौह-वणिकों से होगा।
काष्ठसंघ और यापनीय संघ के पारस्परिक सम्बन्धों पर विचार करने पर यह स्पष्ट प्रतोत होता है कि काष्ठासंघ चाहे यापनीय न हो किन्तु वह यापनीयों से बहुत अधिक प्रभावित तो अवश्य ही है। हो सकता है कि नन्दीसंघ और पून्नाटसंघ-जो क्रमशः नन्दीतटगच्छ और पुन्नाटगच्छ के नाम से काष्ठा संघ में लगभग १२वीं शती में अन्तर्भुक्त १. देखें-भट्टारक सम्प्रदाय पृ० २११-२१२ । २. देखें-(अ) जैनसाहित्य और इतिहास (प्रेमीजी) पृ० २७६ । (ब) काष्ठा संघे चमरी बालैः पिच्छिका।
-षड्दर्शन समुच्चय (हरिभद्र) की गुणरत्न की टीका पृ० १६१ । ३. देखें-जैनसाहित्य और इतिहास (प्रेमीजी) २७६ । ४. भट्टारक सम्प्रदाय पृ० २११ । ५. नंदियेडेवरगामे दर्शनसार ३९ । ६. पं० बुलाकीचन्द्र कृत कथा कोश (वि० सं० १७३७)।
-उद्धृत यापनीय और उनका साहित्य पृ० ५९ ।
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