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.६२ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
गया है । साहित्यिक साक्ष्यों से हमें यह ज्ञात होता है कि हरिवंश पुराण के रचयिता जिनसेन और बृहत्कथा कोष के रचयिता हरिषेण पुन्नाटसंघीय थे। इसी पुन्नाट संघ का आगे चलकर काष्ठासंघ के पुन्नाटगच्छ के रूप में उल्लेख मिलता है । श्रीमती कुसुम पटोरिया के अनुसार काष्ठा संघ में इस संघ का अन्तर्भाव जिनसेन और हरिषेण के बाद ही कभी हुआ होगा। स्मरण रहे कि मूलसंघीय दिगम्बर परम्परा ने काष्ठासंघ को भी जैनाभास कहा है। यहाँ यह विचारणीय है कि प्रारम्भ में इन पुन्नाटसंघी आचार्यों की क्या मान्यताएँ थीं और यापनीय परम्परा से उनका क्या सम्बन्ध था।
पं० नाथराम जी प्रेमी ने जिनसेनकृत हरिवंश पुराण और आचार्य हरिषेणकृत बृहत्कथा कोष में ऐसे अनेक तथ्यों को खोज निकाला है जिनके आधार पर ये ग्रन्थ स्त्रीमुक्ति, सवस्त्रमुक्ति, अन्यलिङ्गमुक्ति का निषेध करने वाली मूलसंघीय दिगम्बर परम्परा से भिन्न किसी अन्य परम्परा के सिद्ध होते हैं । इस सन्दर्भ में विशेष चर्चा तो हम यापनीय साहित्य के प्रसंग में करेंगे। यहाँ तो मात्र यह संक्षिप्त सूचना ही पर्याप्त है कि हरिवंशपुराण में यशोदा से महावीर का विवाह, नन्दीषण मुनि का रोगो मनि के लिए आहार लाना, बलदेव की स्वर्गगति आदि ऐसे अनेक तथ्य हैं जो उन्हें मूलसंघीय दिगम्बर परम्परा से पृथक् करते हैं और यापनीय परम्परा के निकट खड़ा कर देते हैं।२ यद्यपि हरिवंशपुराण के प्रथम और अन्तिम सर्ग में आचार्यों की जो सूची दी गयी है उसके कारण पून्नाटसंघ को यापनीय मानने में बाधा आती है। किन्तु श्रीमती कुसुम पटोरिया और पं० नाथूराम जी प्रेमी ने यह सम्भावना व्यक्त की है कि ये अंश यापनीय साहित्य के दिगम्बर साहित्य में अन्तर्भूत होने के बाद प्रक्षिप्त हुए हैं। हरिवंशपुराण के रचयिता आचार्य जिनसेन के पुन्नाट संघ को यापनीय परम्परा से सम्बद्ध मानने के लिए प्रमुख आधार तो यह है कि बहत्कथा कोष के रचयिता हरिषेण भी पुन्नाट संघीय हैं और उनके बृहत्कथा कोष में यापनीय तत्व भी स्पष्ट रूप से परिलक्षित होते हैं। जैसे स्त्रीमुक्ति, स्त्री के द्वारा तीर्थङ्कर नामकर्म का उपार्जन,
१. (अ) जैनसाहित्य और इतिहास पृ० १२२ ।
(ब) यापनीय और उनका इतिहास पृ० १५१ । २. देखें-यापनीय और उनका साहित्य पृ० १५० । ३. वही, पृ० १५१ ।
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