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४६ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय मूलसंघ (निर्ग्रन्थ संघ) का यापनीयों से सम्बन्ध ___ यापनीयों का मलसंघ से कैसा सम्बन्ध था और उसमें परस्पर किन बातों को लेकर मतभेद था ? इस सम्बन्ध में जो साहित्यिक सूचनाएँ हमें उपलब्ध हैं उनके आधार पर हम यह कह सकते हैं कि उनमें मुख्यतया निम्न बातों में मतभेद रहा होगा
(१) भद्रबाहु के पूर्व या उनके साथ जो मुनिसंघ दक्षिण की यात्रा पर गया था वह यद्यपि अपने साथ महावीर का तत्त्वज्ञान और आचारमार्ग लेकर अवश्य गया था किन्तु उनके पास मात्र उतना ही साहित्य रहा होगा, जितना भद्रबाहु के काल तक निर्मित हो पाया था। पुनः विस्मृति और भाषागत विभिन्नताओं के कारण वे उन आगम ग्रन्थों को मूल रूप में कितना सुरक्षित रख पाये थे, आज यह कहना भी कठिन है। सम्भवतः कालक्रम में उस परम्परा के पास आचारमार्ग और तत्त्वज्ञान के सामान्य सिद्धान्तों की अपनी भाषा में जानकारी के अतिरिक्त विशिष्ट ग्रन्थ शेष नहीं रह गये थे। यही कारण है कि दक्षिण भारत का वह निर्ग्रन्थ संघ (मूलसंघ) आगमों को विच्छिन्न मानने लगा था। यापनीय संघ जो कि उनके बाद लगभग पाँच सौ वर्ष पश्चात् उत्तर भारत की निर्ग्रन्थ धारा से अलग होकर दक्षिण भारत पहुंचा था, वह अपने साथ जिन आगम ग्रन्थों को ले गया था, उनको मूलसंघ ने मानने से इन्कार कर दिया होगा। क्योंकि उन ग्रन्थों में भी चाहे वे अपवाद मार्ग के रूप में ही क्यों न हों, वस्त्र, पात्र आदि के उल्लेख तो थे ही । यही कारण था कि दक्षिण भारत में निर्ग्रन्थसंघ या मूलसंघ के आचार्यों ने आगे चलकर क्षेत्रीय भाषा के अतिरिक्त संस्कृत को भी अपना प्रमुख माध्यम बनाया। कुन्दकुन्द हो मूलसंघ के प्रथम आचार्य थे, जिन्होंने अपने संघ में आगमों की पूर्ति के लिए यापनीयों की शैली में शौरसेनी में ग्रन्थ लिखे। यद्यपि कुन्दकुन्द की लेखन-दृष्टि यापनीय ग्रन्थों से बिल्कुल भिन्न थी। इस प्रकार आगमों के विच्छिन्न होने के प्रश्न पर दक्षिण भारत के निर्ग्रन्थमूलसंघ और यापनोयों में मतभेद रहा होगा।
(२) यापनीयों और दक्षिण भारत के निर्ग्रन्थ संघ मूलसंघ में मतभेद का दूसरा कारण अपवाद के रूप में वस्त्र-पात्र का ग्रहण भी हो सकता है क्योंकि यापनीय वस्त्र-पात्र को अपवाद रूप में ग्राह्य मानते थे । क्योंकि उनके द्वारा मान्य आगमों और निर्मित ग्रन्थों-दोनों में ही अपवाद रूप में इनके ग्रहण का उल्लेख मिलता है । सम्भवतः दक्षिण में मुनि आचार में शिथिलाचार का प्रवेश यापनीयों के द्वारा ही प्रारम्भ हुआ।
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